सोमवार, 28 सितंबर 2015

२९. ज्ञानी को अंग ~ २४

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*इंद्रिनि कौ ज्ञान जाकै सु तौ पशु कै समान,*
*देह अभिमांन खान पान सौं लीन है ।*
*अंतहकरन ज्ञान कछुक बिचार जाकै,*
*मनुष व्यौहार शुभ कर्मनि अधीन है ।*
*आतमा बिचार ज्ञान जाकै निसवासर है,*
*सोई साधु सकल ही बात मैं प्रबीन है ।*
*एक परमातमा कौ ज्ञान अनुभव जाकै,*
*सुन्दर कहत वह ज्ञानी भ्रम छीन है ॥२४॥*
*ज्ञानी द्वैतरहित* : जिसको केवल इन्द्रियों का ही ज्ञान है, तथा जो उसी ज्ञान में मग्न रहता है, उसको पशुतुल्य ही समझना चाहिये; क्योंकि वह देहाभिमानी केवल अपने खान पान तथा विषय-भोगों में निरन्तर लगा रहता है ।
जिसके मन में ज्ञान का कुछ लेश है, उसको सामान्य मनुष्य माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान के कारण, उस का लोकव्यवहार कुछ शुभ कर्मों के अधीन हो जाता है । 
परन्तु जो विवेकपूर्वक निरन्तर(रात दिन) आत्मज्ञान पर ही विचार करता रहता है वही साधू पुरुष सब बातों में प्रवीण माना जाता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं- इस आत्मा का अनुभवात्मक ज्ञान जिसने कर लिया है, वही पुरुष ‘ज्ञानी’ कहलाता है; क्योंकि उस ज्ञान के कारण उसके सभी सांसारिक द्वैत भ्रम क्षीण हो जाते हैं ॥२४॥
(क्रमशः)

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