रविवार, 27 सितंबर 2015

= १९३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सूतां पीछे सुरति निरति सूं, बालक ज्यूं पय पीवे ।
ऐसे अन्तर लगन नाम सूं, आतम जुग-जुग जीवे ॥
ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूलै और ।
यों दादू रह गया एक रस, पीवत पीवत ठौर ॥
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साभार ~ www.bhaktibharat.com

''जौ मोहि राम लगते मीठे !
तौ नव रस, षट रस-रस, अनरस ह्वे जाते सब मीठे !!''
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दोस्तो... राम कथा, कृष्ण कथा तो हज़ारो-लाखों लोग नित्य सुनते रहते है... कथा स्रवण किसी भी रूप मे हो, कल्याण कारी ही होती है... लेकिन कथा में आपको ''रस'' मिल रहा है या नही, यही बात समझने की है...
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सुनना अलग बात है, रस लेना अलग बात है... कोयल का मधुर स्वर-संगीत सब को आकृष्ट कर लेता है पर क्या कौवे की कर्कश कांव-कांव कोई सुनने को लालयत रहता है नहीं ना पर ''रामायण'' मे एक कौवा (काक भूषुंड जी) ऐसा है जो ऐसी सरस कथा सुनाता है जिसे सुनकर श्रोता धन्य-धन्य कह उठते है... मधुर बचन तब बोलेउ काग़ा - कौवे ने मधुर वाणी से कथा सुनाई... दोस्तो.. कहने का मतलब यह है के कौवे के कंठ से भी निकली कथा जब मधुर सरस लगने लगे तो समझ लीजिए कि आप को कथा का रस मिलने लगा है... यही कथा रस है, भक्ति रस है...
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दोस्तो... माता पार्बती जी तो इस संदर्भ में बड़ी विचित्र बात कहती है -
''राम चरित जे सुनत अघाहीँ !
रस-विशेष जाना तिन्ह नाही !!''
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***आप रामकथा / कृष्ण कथा सुन कर यदि तृप्त हो गये तो समझ लीजिए अभी आप की रस पीपासा कमजोर है, उसमे प्रगाड़ता नही आई है... क्योके प्रभु की कथा का रस इतना ज़्यादा होता है के हर बार रस की प्यास बड़ती जाती है*** यही है सच्ची कथा का रस पान
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''वानी''
श्री राधे राधे...

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