रविवार, 27 सितंबर 2015

२९. ज्ञानी को अंग ~ २३

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*ज्ञानी लोक संग्रह कौं करत व्यौहार बिधि१,* 
*अंतहकरन मैं सुपन की सी दौर है।* 
*देत उपदेश नाना भंति के बचन कहि,* 
*सब कोऊ जांनत सकल सिरमौर है ॥* 
*हलन चलन पुनि देह सौं करत नित,* 
*ज्ञान मैं गरक नित हिये निज ठौर है ।*
*सुन्दर कहत जैसे दन्त गजराज मुख,* 
*खाइबे के और ही दिखाइबे कै और है ॥२३॥*
(१. तु०- स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ - भ०गी०, तृ०अ०, श्लो०२१)
*ज्ञानी के सभी कर्म लोकशिक्षा हेतु* : ज्ञानी अपनी सभी व्यावहारिक क्रियाएँ लोकशिक्षा हेतु ही करता है; अन्यथा उस की सभी क्रियाओं के स्वप्न के सदृश मिथ्या ही हैं । 
वह समय समय पर जनता को, सत्पथ पर चलने के लिये, विविध उपदेश देता है, उन को सुन कर सभी लोग समझने लगते हैं कि यह उच्च कोटि का ज्ञानी है । 
वह अपने शरीर को अंग प्रत्यंगों से भी ऐसे हाव भाव दिखाता है कि लोग उसको ज्ञानमग्न ही समझते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं- परन्तु वह वस्तुतः इन सब क्रियाओं में निरपेक्ष प्रभुचिन्तन में लीन रहता है । जैसे हाथी दाँत दिखाने के अन्य, तथा खाद्य भक्षण के अन्य, यही स्थिति२ लोकसंग्रहकर्ता इस ज्ञानी की समझनी चाहिये ॥२३॥
{२. तुल०- सत्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । 
कुर्याद् विद्वाँस्तथा सक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम ॥ 
- भगवद्गीता(३ अ० श्लोक २५)}
(क्रमशः)

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