सोमवार, 21 सितंबर 2015

💐💐 #‎daduji 💐💐
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३४४. राज मृगांक ताल ~
जब मैं साँचे की सुधि पाई ।
तब तैं अंग और नहीं आवै, देखत हूँ सुखदाई ॥ टेक ॥ 
ता दिन तैं तन ताप न व्यापै, सुख दुख संग न जाऊँ ।
पावन पीव परस पद लीन्हा, आनंद भर गुन गाऊँ ॥ १ ॥ 
सब सौं संग नहीं पुनि मेरे, अरस परस कुछ नाँहीं ।
एक अनंत सोई संग मेरे, निरखत हूँ निज मांहीं ॥ २ ॥ 
तन मन मांहिं शोध सो लीन्हा, निरखत हूँ निज सारा ।
सोई संग सबै सुखदाई, दादू भाग्य हमारा ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परिचय प्राप्ति का स्वरूप दिखा रहे हैं कि जब से हमने सत्य - स्वरूप परब्रह्म की सुध प्राप्त की है, तब से हमारे हृदय में दूसरे का स्वरूप, कहिए अवतार आदि नहीं आता है । हम ज्ञानरूपी नेत्रों से उसी का आत्म - स्वरूप से दर्शन करके सुखी हो रहे हैं । उस दिन से तीनों ताप हमारे तन को नहीं व्यापती हैं और न सुख में सुखी होते हैं, न दुःख में दुखी होते हैं । परमेश्‍वर के पवित्र चरणों में ही लीन रहते हैं और आनन्द में मग्न होकर उसके गुणानुवाद गा रहे हैं । शरीर दृष्टि से तो सब सम्बन्धी दीख रहे हैं, फिर भी आत्म - स्वरूप में तो कुछ सम्बन्ध बनता नहीं । आत्मा तो ब्रह्मस्वरूप से सदा मिला हुआ है । 
आत्मा और परमात्मा में कुछ भी अन्तर नहीं है, ओत - प्रोत हो रहे हैं । जो अद्वैत और अनन्त ब्रह्म है, वह सदा हमारे साथ है । उसको हम हृदय में ज्ञान नेत्रों द्वारा देख रहे हैं । मैंने उस आत्म - स्वरूप ब्रह्म को नित्य, अनित्य का विचार करके हृदय में ही प्राप्त किया है और उसी विश्‍व के सार स्वरूप ब्रह्म को सर्वत्र देखते हैं । वह सुख - स्वरूप परब्रह्म है तो सभी के साथ, परन्तु हमारा पूर्ण भाग्य उदय हुआ है, जिससे हमें भान हो रहे हैं और सांसारिक अज्ञानी प्राणियों को वह साथ होता हुआ भी दिखाई नहीं पड़ता है

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