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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २३ वां विन्दु दिन ५ =*
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*= परमानन्द स्थिर रहने का उपाय =*
अकबर बादशाह का उक्त प्रश्न सुनकर परम दयालु दादूजी बोले -
"इश्क मुहब्बत मस्त मन, तालिब१ दर दीदार ।
दोस्त दिल हरदम२ हजूर, यादगार३ हुशियार ॥"
प्रभु में प्रेम करने वाले को चाहिये अपने मन को प्रभु प्रेम में मस्त रक्खे तथा वह जिज्ञासु१ प्रभु स्वरूप के दर्शनार्थ चित्त की एकाग्रता रूप द्वार पर निरंतर स्थिर रहे । अपने हृदय को प्रतिश्वास२ प्रभु रूप मित्र के सन्मुख रक्खे और उसके नाम - स्मरण३ में निरंतर सावधान रहे ।
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दादू आशिक एक अल्लाह के, फारिग१ दुनियां दीन ।
तारिक२ इस औजूद तैं, दादू पाक३ यकीन४ ॥
त्रिविध भेद शून्य निरंजन राम का ही प्रेम होना, सांसारिक धर्म-जाति, वर्ण, आश्रम, पंथादिक के बन्धन से मुक्त१ होना इस देह के अध्यास से रहित२ होना और शुद्ध३ परमात्मा का ही दृढ़ विशवास४ होना ।
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आशिका१ रह२ कब्ज३ करदा,४ दिल वजा५ रफतंद६ ।
अल्लह आले७ नूर दीदम,८ दिलहि दादू बन्द९ ।
प्रेमियों१ का मार्ग२ अधिकार३ में किया४ जाय, आसुरी संपदा के गुणों को हृदय से बाहर६ करके हृदय में दैवी संपदा के गुण सजाये५ जाँय, परम श्रेष्ठ७ परमात्मा के स्वरूप का दर्शन८ करने के लिये अपने मन को निग्रह९ किया जाय ।
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दादू इश्क आवाज से, ऐसे कहै न कोय ।
दर्द मुहब्बत पाइये, साहिब हासिल होय ॥
प्रभु को शब्दों द्वारा पुकारते तो बहुत से लोग हैं किन्तु जैसे भक्तजन प्रेमपूर्ण शब्दों से पुकारते हैं, वैसे अभक्त कोई भी नहीं पुकारता है, और भगवान् तो ह्रदय में प्रेम तथा विरह-वेदना उत्पन्न होने पर ही प्राप्त होते हैं ।
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कहँ आशिक अल्लाह के, मारे अपने हाथ ।
कहँ आलम मौजूद से, कहैं जबाँ की बात ॥
जो अपने साधन रूप हाथों से निजी इन्द्रिय, मन, देहाध्यास आदि पर विजय प्राप्त करके प्रभु-दर्शनार्थ विलाप करते हैं, उनका विलाप कहां ? और जो सांसारिक भोगों में अनुरक्त, देहाध्यास से बँधे हुये लोग प्रार्थना करते हैं वह कहाँ ? अर्थात् सांसारिक लोगों और भक्तों के विलाप की एकता नहीं हो सकती । सांसारिक लोग केवल जबानी बातें ही कहते हैं, उनसे ह्रदय का विलाप नहीं होता है ।
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दादू इश्क अल्लाह का, जे कबहूँ प्रकटे आय ।
तो तन मन दिल अरबाह का, सब पड़दा जल जाय ॥
यदि भाग्यवश हृदय में प्रभु-प्रेम प्रकट हो जाय तो, जीवात्माओं के और परमात्मा के मध्य जो तनाध्यास, मन के विकार, हृदय के आशादि रूप सभी पड़दे जल जाते हैं और प्राणी शुद्ध हो जाता है ।
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अरवाहे१ सिजदा२ कुनंद३ वजूद४ रा५ चे६ कार७ ।
दादू नूर८ दादनी९, आशिकां दीदार१० ॥
शरीर४ पोषण चिन्ता का५ क्या६ काम७ है ? शरीरादि व्यवहार प्रारब्ध पर छोड़कर जीवात्माओं१ के वास्तविक स्वरूप परब्रह्म को ह्रदय में ही प्रणाम२ करते हुये उनकी उपासना करो३ । ऐसा करने से ही वे प्रभु प्रेमियों को देने९ योग्य स्वरूप८ का दर्शन१० देते हैं ।
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उक्त साधन से अन्तःकरण निर्द्वन्द्व होकर निरंतर परमानन्द का अनुभव करता है । उक्त परमानन्द प्राप्ति रूप स्थिति को निरंतर स्थिर रखने के लिये प्रथम जिसके लिये सांसारिक प्राणियों से प्रीति करता है, उस शरीर में आशक्ति नहीं रखना चाहिये और तीनों लोकों की आशाओं को त्याग देना चाहिये । फिर निश्चय ही परब्रह्म उस साधक के ह्रदय में अपना प्रकाश स्थिर कर देते हैं ।
(क्रमशः)
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