💐💐 #daduji 💐
अथ काया बेली ग्रन्थ २३ ~
३५६. पिंड ब्रह्माण्ड शोधन । पंजाबी त्रिताल ~
साचा सतगुरु राम मिलावे, सब कुछ काया मांहि दिखावे ॥ टेक ॥
काया माँही सिरजनहार, काया माँही ओंकार ।
काया माँही है आकाश, काया माँही धरती पास ॥ १ ॥
काया माँही पवन प्रकाश, काया माँही नीर निवास ।
काया माँही शशिहर सूर, काया माँही बाजे तूर ॥ २ ॥
काया माँही तीनों देव, काया माँही अलख अभेव ।
काया माँही चारों वेद, काया माँही पाया भेद ॥ ३ ॥
काया माँही चारों खानी, काया माँही चारों वाणी ।
काया माँही उपजै आइ, काया माँही मर मर जाइ ॥ ४ ॥
काया माँही जामै मरै, काया माँही चौरासी फिरै ।
काया माँही ले अवतार, काया माँही बारम्बार ॥ ५ ॥
काया माँही रात दिन, उदय अस्त इकतार ।
दादू पाया परम गुरु, कीया एकंकार ॥ ६ ॥
(टिप्पणी - श्री स्वामी दादूदयाल की वाणी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का प्रतिपादन करती है, किन्तु इसके “परिचय का अंग” और “कायाबेलि ग्रन्थ” में वेदान्त उपनिषद् तथा सांख्य - दर्शन का विशेष वर्णन सारगर्भित शब्दों में किया गया है । इनका श्री दादू वाणी में वही महत्व है, जो पुराणों में भागवत का तथा महाभारत में “गीता” का है ।
“यथा अण्डे तथा पिण्डे” अथवा “यद्धि पिण्डे तदेव ब्रह्माण्डे” अर्थात् जो कुछ ब्रह्माण्ड में होता है, वहीं सब हमारे इस पँचभौतिक शरीर में भी घटित होता है । अतः हमारा शरीर ब्रह्माण्ड की ही प्रतिकृति है और आकाश, पृथ्वी व पाताल की तरह इसके भी तीन भाग है - (१) शरीर, (२)सूक्ष्म शरीर और (३)कारण शरीर । स्थूल शरीर दृष्ट है और उसमें जल्दी - जल्दी परिवर्तन होता रहता है । सूक्ष्म शरीर पँच कर्मेन्द्रिय, पँच ज्ञानेन्द्रिय, पँच प्राण, मन और बुद्धि, इन सत्रह के संयोग से बना है और इसमें परिवर्तन से स्थायित्व की अधिकता है । कारण शरीर या कर्म शरीर जो प्रकृति या स्वभाव पर आधारित है और जीवात्मा या रूह से संबन्धित है । सूक्ष्म शरीर अक्षर सृष्टि से जुड़ा प्राण शरीर है क्योंकि प्राण ही देव है, अक्षर है । सूक्ष्म शरीर ही स्थूल और कारण शरीर को जोड़े हुए रखता है । यह सारा कार्य मुख्यतः प्राणाधार षट्चक्र व्यवस्था के माध्यम से होता है । इन चक्रों का स्वरूप कमल - दल के रूप में बतलाया गया है ।)
“षट्चक्र पवना फिरै, छः सौ सहस्र इक्कीस ।
जोग अमर जम को दहै, दादू विसवा बीस”
“प्रथम चक्र आधार कहावे । कंचन वर्ण चतुर दल ध्यावे ॥
दुतिय चक्र है स्वाधिष्ठान । माणिक्याकृति ध्यान सुजान ॥
नाभि स्थान चक्रमणिपूरा । तरुण अर्क निभ ध्यावे सूरा ॥
हृदय स्थान चक्र अनहातू । विज्जुल प्रभा ध्याय संगातू ॥
कंठ स्थान सु चक्र विशुद्धा । दीपक प्रभा जु ध्याय प्रबुद्धा ॥
आज्ञा चक्र नील निभ ध्यावे । भ्रू मध्य परमेश्वर पावे ॥
इति षट चक्र ध्यान जो जाने । तबहि जाय निर्गुण पहचाने ॥
गगनाकार ध्याय सब द्वौरा । प्रभा मरीची जल नहिं औरा ॥”
(ज्ञान समुद्र)
स्वाणी चरणदासजी के भी ‘भक्ति सागर’ में इन ही षट् चक्रों का वर्णन है ।
अनादिकाल से चला आ रहा यह बीज रूप शरीर है, काया को बेलि बनाकर ब्रह्म इसमें सूक्ष्म रूप से रह रहा है -
“ॐ ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्यम् ।” - गीता
यह ज्ञान सतगुरु से ही प्राप्त होता है । अतः कायाबेली के प्रत्येक पद के अन्त में सद्गुरु की महिमा बताई है ।
शरीर और इन्द्रियाँ -
“पावक, पानी, वायु है, धरती और आकाश ।
पाँच तत्व के कोट में, आप कियो है वास ॥
गुदा लिंग मुख तीसरो, हाथ पाँव लखि लेह ।
पाँचों इन्द्री कर्म हैं, यह भी कहिये देह ॥
यह सम्पूर्ण संसार पँच भूतों से निर्मित है, उसी प्रकार यह शरीर भी इन्हीं पँच तत्त्वों से बना हुआ है । इन पँच भूतों की क्रमशः उत्पत्ति आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के रूप में हुई और उनकी तन्मात्राएँ भी एक से दूसरे में क्रमशः समाविष्ट होती गई । इन तत्त्वों का ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध है । ज्ञानेन्द्रिय तन्मात्रा को ग्रहण तथा कर्मेन्द्रिय तन्मात्रा का त्याग करती है ।
आकाश - शरीर के शीर्ष भाग से आकाश तत्व मुख के कंठ भाग में अवस्थित हुआ, जिसकी आधा शक्ति दुर्गा है, जिसको अध्यात्म में वासना नाम से अभिहित किया गया है, जो अच्छी नहीं समझी गई क्योंकि यह बड़ी कठिनता से जीती जा सकती है । ‘दुर्गा’ शब्द दो शब्दों(दुर् + गम्) से बना है, जिसमें ‘दुर्’ का अर्थ बुरा या कठिन होता है और ‘गम्’ का अर्थ जाना होता है । आकाश का ‘मुख’ कर्मेन्द्रिय और श्रुति ज्ञानेन्द्रिय से सम्बन्ध है और इसकी तन्मात्रा शब्द है । आकाश अदृष्ट है ।
वायु - वायु का स्थान वक्षःस्थल(हृदय - श्वसन संस्थान) से है, जिससे जीवन - शक्ति प्राप्त होने के साथ आयु का क्षरण होता रहता है, अतः सृष्टि - संहारक शिव को इसका अधिदेव माना गया है, हस्त कर्मेन्द्रिय और त्वक् ज्ञानेन्द्रिय के साथ इसका सम्बन्ध है और ‘स्पर्श’ इसकी तन्मात्रा है । “वायुः संभवते स्वात्तु ।”(लिंग पुराण) । आकाश से उत्पत्ति के कारण इसमें स्पर्श के साथ शब्द की स्थिति भी है । वायु भी अदृष्ट है ।
अग्नि - वायु से अग्नि उत्पन्न होती है, जिसका ‘पद’ कर्मेन्द्रिय और ‘नेत्र’ ज्ञानेन्द्रिय से सम्बन्ध होने से रूप इसकी तन्मात्रा है और नाभि(उदर) स्थान है जहाँ सृष्टि - पालक ‘विष्णु’ होता है । इसमें शब्द, स्पर्श और रूप तीनों की तन्मात्राएँ पाई जाती हैं । सर्वरूप अग्नि से ही प्रतीत होते है, अतः अग्नि, जल और पृथ्वी दृष्ट है ।
जल - अग्नि से जल की उत्पत्ति बतलाई गई है जिसकी कर्मेन्द्रिय लिंग(उपस्थ) तथा ज्ञानेन्द्रिय रसना(जिह्वा) है और तन्मात्रा ‘रस’ है, जिसमें शब्द, स्पर्श और रूप की तन्मात्राएँ भी विद्यमान है । इसका देवता सृष्टिकर्ता ब्रह्मा कहा गया है ।
पृथ्वी - जल से पृथ्वी की उत्पत्ति है जिसकी कर्मेन्द्रिय गुदा(पायु) और ज्ञानेन्द्रिय नासिका तथा तन्मात्रा ‘गन्ध’ है । इसमें शब्द स्पर्श रूप, रस, गन्ध ये पाँचों तन्मात्राएँ होती हैं । इसका देवता विघ्नहर्त्ता व शुद्धिकर्ता गणेश है । ‘मलबन्ध रोगी और दलबन्ध राजा’ को खतरे से परे बताया गया है । - सम्पादक
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव जो ब्रह्मांड में है, वही काया में भी है । यह दिखाते हुए पिंड ब्रह्माण्ड की एकता बता रहे हैं -
साचा सतगुरु राम मिलावे ~ गुरु के लक्षण जिनमें घटित हों, ऐसे सच्चे सतगुरु काया रूपी बेली का ज्ञान कराकर शरीर के भीतर ही हृदय में निरंजन राम का दर्शन करा देते हैं ।
राम नाम उपदेश करि, आगम गवन यहु सैन ।
दादू सतगुरु सब दिया, आप मिलाये ऐन ॥
सबद साल ताला जड्या, अर्थ द्रव्य ता माँहि ।
रज्जब गुरु कूँची बिना, हस्त सु आवै नांहि ॥
थिर जंगम व्यापक सबै, निराकार निरधाम ।
सो दरसावै दिल मँही, ता गुरु कूँ प्रणाम ॥
झूठे अंधे गुरु घणे, भटकैं घर घर बारि ।
कारज को सीझै नहीं, दादू माथै मार ॥
सब कुछ काया माँहि दिखावे ~ काया भंडार में सब निधियाँ हैं ‘जो ब्रह्मांडे सो पिंडे ।’ परन्तु उपदेश से मिलती हैं ।
सकल कर्म ताला भया, जीव जड़या ता माँहि ।
गुरु दृष्टि कूँची बिना, कबहूँ खूटै नांहि ॥
त्रिगुण रहित कूँची गुरु, ताला त्रिगुण शरीर ।
जन रज्जब जीव तो खुले, जे योग्य मिले गुरु पीर ॥
काया माँही सिरजनहार ~ सृष्टिकर्ता ईश्वर व्यापक होने से शरीर में विद्यमान है ।
दादू जल में गगन, गगन में जल है, फुनि वै गगन निरालं ।
ज्यूं दरपन में मुख देखिये, पाणी में प्रतिबिम्ब ।
जीये तेल तिलनि में, जीये गंध फुलनि ॥
इये रबु रूहनि में, जीयें रूह रगनि ।
आप आपण में खोजो रे भाई, बस्त अगोचर गुरु लखाई ॥
तिल मध्ये यथा तैलं, काष्ठ - मध्ये हुताशनम् ।
पयोमध्ये यथा घृतं, देह - मध्ये तथात्मनः ॥
कबीर ज्यूं नैनों में पूतली, त्यूं खालिक घटि माँहि ।
मूरख लोग न जाण ही, बाहिर ढ़ूंढ़ण जांहि ॥
काया माँही ओंकार ~ ओ३म्(अ + उ + म्) में अ = विराट् रूप विश्व की उत्पत्ति करने वाले, उ = तेज स्वरूप हिरण्य, म् = मायाविशिष्ट और अविद्या विशिष्ट । परा और माया के बीच ओंकार शब्द आता है और ओंकार शब्द के अंतरंग सम्पूर्ण सृष्टि है । तैसे ही अनहद शब्द से शरीर के सब व्यवहार होते हैं और यही स्थूल शरीर का जीवन मूल है । इसी के आधीन प्राण - गति है ।
काया माँही है आकास ~ आकाश सब को अवकाश देता है, तैसे समताभाव से संत सबको आदर देते हैं ।
“साहिब जी की आत्मा, दीजै सुख संतोष ।”
“आत्म राम विचारिये, घटि घटि देव दयाल ॥”
बाहर जो इन्द्रिय पसारा पसारता है, तो संत अंतर्मुख समावे और अनंत विद्या शब्द श्लोक ग्रंथों को अंतर धारण करे ।
काया माँही धरती पास ~ जैसे धरती सबकी धूमस को क्षमा करती है, तैसे संत सम्पूर्ण त्रास कसौटियों को क्षमा करें और धैर्यवान हों ।
सिर में दई रव्वाब की, क्रोध नहीं लवलेश ।
फिर उलटि पूजा करी, राघो वे दरवेश ॥
दृष्टान्त ~ एक मिरासी रबाब बाज लेकर सवेरे रोजी के लिये घर से निकल कर चला । सामने खुले सिर से एक संत आते हुए मिले । मिरासी ने सोचा, अपशकुन हो गया । वापिस घर आ गया । दूसरे रोज फिर चला । सामने वही संत फिर मिल गये । फिर वापिस घर आ गया । तीसरे रोज फिर सवेरे चला, वही महात्मा घूमते हुए फिर सामने टकरा गये । मिरासी को बड़ा क्रोध आया और रबाब की गज निकाल कर महात्मा की खोपरी में एक मारी और बोला ~ सवेरे रोज सामने मिल जाता है, नंगे सिर से । महात्मा के खून चल पड़े, परन्तु अपने सिर पर ध्यान न देकर, उसकी गज टूट कर गिर गई थी, उसे महात्मा ने उठाई और बोले ~ चल हमारे सेवक के पास । तेरी गज की मरम्मत करवा दें, जिससे तूँ बाजा बजाकर अपने बाल - बच्चों का पालन - पोषण करेगा । यह सुनकर मिरासी की भीतर की आँखें खुल गई और चरणों में गिरकर नमस्कार किया । अपराध के लिए क्षमा माँगी । महात्मा बोले ~ कोई बात नहीं । हमने तेरा पहले जन्म में सिर फोड़ा होगा । तैंने हमारा फोड़ दिया । महात्मा के किंचित् भी मन में क्रोध उत्पन्न नहीं हुआ । ऐसे संतों को धन्य है । वही परमेश्वर के सच्चे प्रिय हैं ।
खूंदणि तो धरती सहै, बाढ़ सहै वनराइ ।
कुशब्द तो हरिजन सहै, दूजे सह्या न जाइ ॥
काया माँही पवन प्रकाश ~ प्राण वायु काया को जीवित रखता है । बाहर जब पवन जोर से चलता है, तब वृक्ष गिर पड़ते हैं, धूल उड़ती है । धैर्य रहता नहीं । इधर संतों की ज्ञान रूपी आंधी चले, तब वृक्ष रूपी मान बड़ाई का अभिमान छूट जाय और रजोगुण रूपी रेत उड़ जाय एवं ज्ञान का प्रकाश हो जाय ।
काया माँही नीर निवास ~ पानी की दृष्टि से जिस प्रकार जड़ चेतन जगत सर सब्ज रहता है और सब को आनन्द देता है । इसी प्रकार संत वाणी रूप ज्ञान - जल शांति सुख फैलाते हैं ।
अमी महारस भर भर पीवे,
दादू जोगी जुग जुग जीवे ।
काया माँही शशिहर सूर ~ शशिहर - मन, सूर - पवन एवं दोनों नेत्र, बायां नेत्र चन्द्र, दायां नेत्र सूर्य । ब्रह्मांड में जैसे चन्द्र सूर्य प्रकाशते हैं, तैसे ही शरीर में दोनों नेत्र प्रकाशते हैं और वहाँ शीतल तप्त किरणें हैं । यहाँ शान्त दृष्टि शशि की और तेज दृष्टि सूर्य की है । वहाँ १६ कला चन्द्रमा की, और १२ कला सूर्य की हैं । इसी प्रकार काया में यह मन चन्द्र की १६ कला ~ शान्ति, निवृत्ति, क्षमा, उदारता, निर्मलता, निश्चलता, निर्भयता, नि:शंकता, समता, निर्लोभता, निर्ममता, निरहंकारता, सहवीर्यता, ज्ञान, आनन्द, निर्वाण । सूर्य की १२ कला ~ चिंता, तरंग, डिंभ, माया, परिग्रह, प्रपँच, हेत, बुद्धि, काम, क्रोध, लोभ ।
काया माँही बाजै तूर ~ अनहद शब्द । शरीर में अनाहत ध्वनि रूप नगाड़ा और तुरही बाजे बजते है । जब मूलाधार चक्र में स्थित ब्रह्म - ग्रंथि का भली प्रकार भेदन होता है, तब हृदयावस्था में अनाहत ध्वनि आरम्भ होती है ।
काया माँही तीनों देव ~ तीन गुण ~ राजस - ब्रह्मा, सात्विक - विष्णु, तामस - महादेव । ब्रह्मा का वास नाभि में, विष्णु का हृदय में, महादेव का मस्तक रूपी कैलास में ।
काया माँही अलख अभेव ~ लक्ष्यस्वरूप अविगत ब्रह्म भी काया ही में है, जैसा सिरजनहार की टीका में कह आये हैं ।
काया माँही चारों वेद -
ॠग् रटण जरणां यजुर्, साम सहनता जाणि ।
अनभै अथर्वण पिंड में, चार वेद परवाणि ॥
अष्टांग योग में तिन के स्थान । नाभि - ऋग्, हृदय - यजुर्, कंठ - साम, मुख - अथर्वण । संतजन नाम रटन को ऋग्, जरणा को यजु, सहनशक्ति को साम और अनुभव को अथर्वण कहते हैं । ये चारों शरीर में ही रहते हैं ।
काया माँही पाया भेद ~ भेद ज्ञान काया रूपी उपाधि करके ही है ।
काया माँही चारों खानी ~ चार प्रकार से सब जीव शरीरों की उत्पत्ति होती है । सो यह चार खानें हैं: - जरायुज - मनुष्य, चौपाये; अंडज - पक्षी, सर्प आदि; उद्भिज - वनस्पति; स्वेदज - जूँ, लीख । शरीर में जरायुज रूपी नाड़ी हैं । अंडज रूपी नेत्र, उद्भिज रूपी रोम, स्वेदज रूपी हड्डियाँ । प्रथम खान आत्मा, द्वितीय खान मन, तृतीय खान - प्रकृति, चतुर्थ खान ज्ञान है ।
काया माँही चारों वाणी ~ ‘परा’ - ब्रह्मवाणी; ‘पश्यन्ती’ - देव - वाणी; ‘मध्यमा’ - पशु पक्षियों की वाणी; ‘वैखरी’ - मनुष्यों की वाणी । इनके रूप, स्थान, अवस्था, देवता इस प्रकार हैं ~
परावाणी - बीजरूप, स्थान - नाभि, अवस्था - तुरिया, देवता - सोऽहं । पश्यन्ति वाणी - रूप - अंकुर, स्थान - हृदय, अवस्था - सुषुप्ति, देवता - ईश्वर ।
मध्यमा वाणी, रूप - पात, स्थान - कंठ, अवस्था - स्वप्न, देवता - विष्णु । वैखरी वाणी - रूप वृक्ष विस्तार, स्थान - मुख, अवस्था - जाग्रत, देवता - ब्रह्मा ।
परावाङ् मूलचक्र स्था, पश्यन्ति नाभि - संस्थिता ।
हृदिस्था मध्यमा गेया वैखरी कण्ठदेशगा ॥
वैखर्या कृतो नाद: परश्रवणगोचर: ।
मध्यमया कृतो नाद: स्फोट व्यंजक उच्यते ॥ - भर्तृहरि
पारब्रह्म कहा प्राण सौं, प्राण कहा घट सोइ ।
काया माँही उपजै आइ, काया माँही मरि मरि जाइ ~ अन्तःकरण में लहर तरंग रूपी वृत्तियों की उत्पत्ति और लय । श्रवण द्वारा संस्कार हृदय में आकर भावनायें उत्पन्न होती हैं और विचारधाराओं से वे बारम्बार मिथ्या निश्चय रूप मरण को प्राप्त होकर हृदय से निकल जाती हैं ।
सब गुण सब ही जीव के, दादू व्यापैं आइ ।
काया माँही जामैं मरै ~ मन के मनोरथ, गुण विकारों की उत्पत्ति और मिटना ही जन्म - मरण है ।
जीव जनम जाणै नहीं, पलक पलक में होइ ।
कबीर प्राण पिंड कूँ तजि चले, मुवा कहै सब कोइ ।
जीव छतां जामै मरै, सूक्षम लखै न कोइ ॥
काया माँही चौरासी फिरै ~ नाना प्रकार की मनो भावनाओं में मन का गमनागमन ही चौरासी फेर है ।
दादू चौरासी लख जीव की, परकीरति घट मांहि ।
अनेक जन्म दिन के करै, कोई जाणै नांहि ॥
काया माँही ले अवतार, काया मांहै बारम्बार ~ जैसे धर्म - स्थापना के लिए ब्रह्मांड में ईश्वर बारंबार नृसिंहादि अवतार लेते हैं, वैसे ही शरीर में मर्यादा स्थापन के लिए विवेकादि दिव्य गुण बारंबार प्रकट होते रहते हैं ।
दादू जेते गुण व्यापैं जीव को, तेते ही अवतार ।
काया माँही रात दिन, उदय अस्त इकतार ~ रात्रि - अज्ञान, वासर - दिन ज्ञान व जागृत अवस्था, उदय - द्वैतरूपी गुण प्रकट होना, उनका ब्रह्माकार वृत्ति में एक रस होना अस्त ।
दादू पाया परम गुरु, कीया एकंकार ~ परमगुरु परमेश्वर है । तिसको उसी की कृपा से पाया, तब सब द्वैत - भावनाओं का लय होकर एकंकार अद्वैत निष्ठा प्राप्त हुई ।
दादू पाणी लूंण ज्यूं, ऐसे रहै समाइ ।
A true Master unites us with God
And shows all within the body.
Within the body is the Creator,
And within the body is Onkar,*
The sky is within the body, and close by
Is the earth within the body.
Air and light are within the body;
So is water contained within the body.
Within the body are the sun and the moon,
And the tur** is played within the body.
Within the body are the three gods,***
And so is the Imperceptible and Indistinguishable
within the body.
Within the body are the four Vedas,
And wisdom is obtained within the body.
*Onkar is the divinity of the second region, Trikuti.
**tur: A stringed instrument resembling a dulcimer that was traditionally played by wandering minstrels.
***The three gods in the Hindu triad: Brahma the creator, Vishnu the sustainer and Shiva the destroyer.
The four kinds of life are within the body,*
And so are the four sounds within the body.**
Within the body does one come to be born,
And within the body one dies again and again.
Birth and death are within the body,
And one goes round the eight-four within the body.***
Divine incarnations take place within the body,
And they happen again and again within the body.
Day and night are within the body;
Rising and setting continually go on within the body.
Dadu has found the highest Guru,
Who has revealed the true Oneness.
*The four kinds of life are as follows:(1) born of embryo with an outer membrane(jarayuj), e.g. human beings or animals;(2) born of eggs(andaj) e.g. birds;(3) born of warm vapour or sweat(svedaj) e.g. mosquitoes or insects; and(4) sprouting from beneath the ground(udbhij) e.g. plants or trees.
**The four sounds are the following:(1) produced by tongue(vaikhari);(2) produced mentally at the throat centre(madhyama);(3) produced mentally at the heart centre(pashyanti); and(4) produced mentally in a subtle form by yogis at the navel centre(para). All three are sounds which can be spoken, written or read. The Sound that the Stairs emphasize is the unspoken, unutterable Sound, different from and transcending all the four.
***Eighty-four lakh(8,400,000) life forms in the cycle of transmigration of the soul.
(English
translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K.
N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें