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विरहा पारस जब मिला,
तब विरहनी विरहा होइ ।
दादू परसै विरहनी, पीव पीव टेरे सोइ ॥
राम विरहनी ह्वै रह्या, विरहनी ह्वै गई राम ।
दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम ॥
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साभार : राधा शरण दास ~
विरह ! विरह ? सतही अर्थ न लेना; इस शब्द की अनन्त गहराईयों में डूबोगे तब कहीं जाकर सच्चे मोती सा नायाब अर्थ मिलेगा। विरह किसी सच्चे रसिक/भक्त/प्रेमी को ही हो सकता है। विरह उसी को हो सकता है जिसने कभी अपने प्राण-प्रियतम की एक झलक देख ली हो/एक बार दर्शन कर लिया हो।
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बिना एक झलक/दर्शन के विरह संभव नहीं ! जिससे मिलन ही नहीं हुआ, उसका विरह कैसे संभव ? मिलन की इच्छा/लालसा/कामना हमें दर्शन तक ले जा सकती है। विरह इसके बाद की सीढ़ी है। विरही की दशा का एक संकेत -
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प्रेम लग्यो परमेश्वरसों,
तब भूलि गयो सिगरो घरबारा।
ज्यों उन्मत्त फिरे जित ही तित,
नेकु रही न शरीर सँभारा॥
स्वास-उस्वास उठै सब रोम,
चलै दृग-नीर अखंडित धारा।
"सुन्दर" कौन करे नवधा बिधि,
छाकि परयो रस पी मतवारा॥
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पुनश्च -
नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे।
पीर जाके औषध बिनु, कैसे रहमो जात है॥
चातक ज्यों स्वाति बूँद, चंद को चकोर जैसे।
चन्दन की चाह करि, सर्प अकुलात है॥
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निर्धन ज्यों धन चाहे, कामिनी को कंत चाहे।
ऐसी जाको चाह ताको, कछु न सुहात है॥
प्रेम को प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो।
सुन्दर कहत यह, प्रेम की ही बात है॥
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झलक दिखी और अब लीला-कौतुक आरंभ। आरंभ हो गया खेल, आँख-मिचौली का ! दाँव दे रहा है अंश और छुप रहा है अंशी ! ढूढ़ निकालना है अंशी को ! किन्तु उसी की खोज का लक्ष्य रख खोजते हुए भी उसे अपने बूते खोजना कठिन !
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और जब विफल रहने पर होने लगती है कुछ झुँझलाहट सी अपने ऊपर, अपनी असफलता पर। यकायक "वह" निकलता है कहीं पास से और पीठ पर स्नेहासिक्त धौल जमाकर, मुस्कराते हुए कहता है -"धप्पा !" खिल उठता है ह्रदय-कमल।
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दिव्य-स्पर्श से भर जाती है देह ! नव-प्राणों का संचार हो उठता है। जी-भर के निहारा उन्हें और चल दिये पुन: दाँव देने । वे फ़िर छुप गये ! मिलन और विरह ! विरह और मिलन ! अनवरत चलने वाला खेल ! किन्तु प्रत्येक बार दाँव मुझे ही देना है; मुझे खोजने में आनन्द आता है और उन्हें झलक दिखलाते हुए छुपने में !
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मुझे यह भी विदित है कि यदि उन्होंने दाँव दिया तो यह खेल चल न सकेगा क्योंकि मैं, उनसे कहीं भी छिप न सकूँगा। खेल का आनन्द चला जायेगा। तो फ़िर यही हो ! तुम सामने आओ, धप्पा मारो फिर छिपो और मैं खोजूँ ! वैसे भी छिपने में तो तुम्हें महारत हासिल है ! तुम तो सामने रहकर भी छिप जाते हो ! और तुम्हें छिपना भी कहाँ हैं ?
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समस्त जड़-चेतन में तुम ही तो व्याप्त हो ! तुम्हारे दर्शन की तीव्र इच्छा, दृढ़ विश्वास और करूण पुकार, तुम्हें प्रगट कर देती है। तुम तो अपने भक्तों के लिये खंभ फाड़कर भी प्रगट हो जाते हो। मन का कलुष जब धुल जाता है तो तुम्हारी कृपा से दिव्य-दृष्टी मिल जाती है और अब तो तुम ही तुम ! जित देखूँ तित श्याममयी है। अब कोई नियम न रहा, कुल की मर्यादा न रही, ज्ञान की अभिलाषा न रही, योग को तो समझे ही कौन ? बाबरों पर कोई नियम भी तो लागू नहीं होता। बाबरे से पूछोगे भी तो वह उल्टा ही पूछ बैठेगा - "मैं कौन ? तुम कौन ?"
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स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,
आठों जाम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है।
स्याम हिये स्याम जिये, स्याम बिनु नाहिं तिये,
आँधे की सी लाकरी अधार स्याम नाम है॥
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स्याम गति स्याम मति, स्याम ही हैं प्रान पति,
स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है।
ऊधौ तुम भये बौरे, पाती लैकै आये दौरे,
जोग कहाँ राखैं, यहाँ रोम-रोम स्याम हैं॥
जय जय श्री राधे !
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