गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015


💐💐 ‪#‎daduji‬ 💐💐
॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥ 
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

= बारहवां १२ अध्याय =
= १५ आचार्य हरजीराम जी ~
आचार्य गुलाबदासजी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर वि. सं. १९४८ में मार्ग शीर्ष शुक्ला १५ मंगलवार को सर्व समाज ने मिलकर हरजीरामजी महाराज को आचार्य गद्दी पर बैठाया । आपने २२०००) रु. पूजा दादूपंथ को दी थी । 
आपके टीके की भेंट ~ आपके टीके के दस्तूर पर जयपुर नरेश ने- घोडा, दुशाला व १००) रु. भेंट भेजी । अलवर नरेश ने- एक हथिनी, पाग, मलमल, पार्चाथान, दुशाला आदि भेजे । जोधपुर नरेश जसवंतसिंहजी द्वितीय ने घोडा, दुशाला भेजे । जीन्द नरेश रणधीरसिंहजी ने एक - दुशाला ५००) रु. भेजे । पटियाला नरेश राजेन्द्रसिंहजी ने दुशाला- पाग आदि भेजे । सीकर नरेश माधवसिंहजी ने- दुशाला और १००) रु. भेजे । किशनगढ नरेश शार्दूलसिंहजी ने- एक दुशाला भेेजा । रतलाम नरेश रणजीतसिंहजी ने- दुशाला और १००) रु. भेजे । सूरजगढ के ठाकुर जीवणसिंहजी ने- १००) रु. भेजे । इत्यादिक बडे छोटे नरेशों व रईसों की टीका रुप भेंट आई । समस्त दादूपंथी समाज ने मर्यादा के अनुसार भेंटें चढाई । उक्त प्रकार टीका की भेंट का संक्षिप्त परिचय है ।
विशेषतायें ~ 
आचार्य हरजीरामजी महाराज बाल्यावस्था से ही अपना समय ब्रह्म भजन में ही व्यतीत करते थे । ब्रह्म भजन में ही उनका प्रेम था । अन्य के साथ तो वे कर्तव्य का ही पालन करते थे । अन्य व्यवहारिक कार्य से तो आप सदा उपराम ही रहते थे । आप परम विरक्त एकान्त सवी और मित भाषी थे । ऐसा ही उपदेश अपने पास रहने वाले शिष्यों तथा संतों को देते थे और कहते थे देखो, दादूजी महाराज भी कहते हैं- ‘‘दादू बहु बकवाद से, वायु भूत हो जाय ।’’ आचार्य पद पर विराजने पर भी आपका व्यवहार पूर्ववत ही रहा था । पद प्राप्तिका अभिमान तो आपको लेश मात्र भी नहीं छू सका था । आचार्य पद पर आसीन होने पर आपका अधिक समय ब्रह्मभजन में ही व्यतीत होता था । परमहंसों के लक्षणों से आप संपन्न थे । 
आप के समकालीन संत आप में परमहंसों के लक्षण प्रत्यक्ष रुप में देखते थे । आप सब में सम रहते थे । आसुर गुणों का प्रभाव आपके हृदय पर कभी नहीं पडता था । दैवीगुण अवश्य आप में भासते थे । किन्तु वे भी तो अन्त: करण के ही थे । अपने आत्मा को तो वे सदा निर्गुण निर्लेप निर्विकार ही समझते थे तथा कहते थे । किसी वस्तु या व्यक्ति में आपकी आसक्ति लेशमात्र भी नहीं थी । वे सदा निर्द्वन्द्व ही रहते थे । उक्त प्रकार उनके समकालीन संत उनके विषय में कह गये हैं । 
(क्रमशः)

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