गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

२९. ज्ञानी को अंग ~ २७

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*एक ज्ञानी कर्मनि मैं ततपर देखियत,*
*भक्ति कौ प्रभाव नाहिं ज्ञान मैं गरक है ।*
*एक ज्ञानी भकति कौ अत्यन्त प्रभाव लिये,*
*ज्ञान मांहि निश्चै कर कर्म सौं तरक है ॥*
*एक ज्ञानी ज्ञान ही मैं ज्ञान कौ उचार करैं,*
*भक्ति अरु कर्म इनि दुहुं तैं फरक है ।*
*कर्म भक्ति ज्ञान तीनौं वेद मैं बखांनि कहे,*
*सुन्दर बतायौ गुरु तांहि मैं लरक है ॥२७॥*
*ज्ञान, कर्म, भक्ति* - तीन में किसी एक से आराधना : कोई ज्ञान शास्त्रादिष्ट कर्म करने में ही सन्नद्ध रहता है । उस पर प्रभुभक्ति का कोई प्रभाव नहीं चढ़ पाता, तथा वह कर्मपालन में ही विभोर रहता है ।
किसी साधक पर भक्ति का ऐसा प्रभाव चढ़ जाता है वह स्वमति अनुसार उक्त कर्मों को कोई महत्व नहीं देता ।
तीसरा साधक आत्मज्ञान में ही मग्न रहता है, वह भक्ति एवं कर्म - दोनों से स्वयं को पृथक् रखता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - भक्ति, ज्ञान एवं कर्म - ये तीनों ही मार्ग वेदविहित हैं; गुरु ने जिसकों तीनों में से जिस मार्ग पर लगा दिया, वह उसी में ललक के साथ लगा रहता है ॥२७॥
(क्रमशः)

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