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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*जैसैं पंखी पगनि सौं चलत अवनि आइ,*
*तैसैं ज्ञानी देह करि कर्मनि करत है ।*
*जैसैं पंखी चूंच करि चुगत आहार पुनि,*
*तैसैं ज्ञानी उर मैं उपासना धरत है ।*
*तैसैं पंखी पंखनि सौं उड़त गगन मांहि,*
*तैसैं ज्ञानी ज्ञान करि ब्रह्म मैं चरत है ।*
*सुन्दर कहत ज्ञानी तीनौं भाति देखियत,*
*ऐसी बिधि जानैं सब संशय हरत है ॥२८॥*
*ज्ञानी के तीन भेद* : जैसे कोई पक्षी पैरों से भूमि पर चलता है, वैसे ही कोई ज्ञानी शास्त्रोक्त कर्मों को पूर्ण करता है ।
जैसे कोई पक्षी अपनी चोंच से अपना आहार चुगता है, उसी तरह कोई ज्ञानी अपने हृदय में किसी देवता की उपासना करता है ।
तथा जैसे कोई पक्षी अपने पंखों से कभी आकाश में उड़ जाता है; वैसे ही कोई ज्ञानी अपने ज्ञान के प्रभाव से ब्रह्मध्यान में मग्न रहता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - लोक में उक्त प्रकार के तीनों ही ज्ञानी देखे जाते हैं, यह तथ्य समझ लेने पर साधक के सभी भ्रम मिट जाते हैं ॥२८॥
(क्रमशः)
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