रविवार, 15 नवंबर 2015

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*दादू आप चिणावै देहुरा,*
*तिसका करहि जतन ।*
*प्रत्यक्ष परमेश्वर किया,*
*सो भानै जीव रतन ॥*
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साभार : Ramgopal Goyal Rotiram ~
"चौदहवीं शताब्दी में आंध्र प्रदेश की शूद्र जाति में जन्मे संत "श्री वेमना जी" के मूर्ति पूजा के प्रति भाव"
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कुछ लोग भी कैसे पशु हैं कि, पत्थरों को तो पूजते हैं, लेकिन अंतर के अंतर्यामी सच्चिदानंद भगवान की परवाह ही नहीं। एक निर्जीव पत्थर कैसे जीती जागती व नित्य ईश्वरीय शक्ति से बढ कर हो सकता है। उन्होंने न जाने कैसी कैसी भ्रांतियां पाल रखी हैं कि, भगवान निर्जीव मूर्तियों में तो बसते हैं, लेकिन मुझ चलते फिरते इंसान में नहीं।
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एक पत्थर के टुकडे को किसी पहाड की चोटी से हाथ पैरों से लुढका कर पटकते हुए ले आते हैं, फिर छैनी से काटते हैं, हथौडे से पीटते हैं और उसके सामने काँपते हुए से मंत्र जपते हैं, और सालों जपते ही रहते हैं।
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वे मूर्ख जीवित बैल को तो मारते हैं, भूखा रखते हैं, लेकिन जब वह पत्थर में ढल जाता है, तो उसकी पूजा करने लगते हैं, मिठाईयाँ खिलाने लगते हैं। यह कितना बडा धोखा है। क्या? उनने मान लिया है कि, भगवान घट - घट बासी नहीं है, वह केवल पत्थरों में ही रहता है।

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