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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३२. अद्वैत ज्ञान को अंग*
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*आदि हुतौ सोई अंत रहै पुनि,*
*मद्धि कहा कछु और कहावै ।*
*कारन कारज नाम धरै जगि,*
*कारज कारन मांहि समावै ॥*
*कारज देखि भयौ बिचि बिभ्रम,*
*कारन देखि बिभ्रम्म बिलावै ।*
*सुन्दर या निहचै अभिअंतरि,*
*द्वैत गये फिरि द्वैत न आवै ॥२२॥*
इस ब्रह्म का जो आदि है वही अन्त है । इस के मध्य का भी कहीं अन्य नाम नहीं रखा जा सकता ।
यहाँ जगत् में कारण एवं कार्य का भिन्न भिन्न नाम रखा हुआ है, वस्तुतः अन्त में कार्य(घट) कारण(मृतिका) में ही समा जाता है ।
बीच में कार्य को देख कर साधारण जन को भ्रम होने लगता है; परन्तु कारण की स्थिति(वास्तविकता) समझ में आने पर यह भ्रम मिट जाता है ।(परं दृष्टा निवर्तते)
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अपने हृदय में यही निश्चय कर लो - द्वैत के एक बार नष्ट होने पर उसकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती ॥२२॥
(क्रमशः)
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