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*दादू जागहु लागहु राम सौं, छाड़हु विषय विकार ।*
*जीवहु पीवहु राम रस, आतम साधन सार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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विश्राम के लिए पक्षी घोंसला बनाए, इसमें तो कुछ भी अड़चन नहीं। क्योंकि घोंसले में किया गया विश्राम, आकाश में उड़ने की तैयारी का अंग है। आकाश से विरोध नहीं है घोंसले का। घोंसला सहयोगी है, परिपूरक है। सतत तो कोई आकाश में उड़ता नहीं रह सकता। देह तो थकेगी। देह को विश्राम की जरूरत भी पड़ेगी। इसलिए घोंसला शुभ है, सुंदर है, सुखद है।
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इतना ही स्मरण रहे कि घोंसला आकाश नहीं है। सुबह उड़ जाना है; रैन बसेरा है। लक्ष्य तो आकाश ही है; घोंसला पड़ाव है। गंतव्य, मंजिल, वह तो अनंत आकाश है; वह तो सीमाओं के पार जाना है। क्योंकि जहां तक सीमा है, वहां तक दुख है; सीमा ही दुख है। सीमा में होना अर्थात कारागृह में होना। जितनी सीमाएं होंगी, उतना ही आदमी जंजीरों में होगा। सब सीमाएं टूट जाएं, तो सब जंजीरें गिर जाएं। कारागृह से इस मुक्ति के उपाय का नाम ही धर्म है।
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संसार का अर्थ है, कारागृह से चिपट जाना; कारागृह को पकड़ लेना; जंजीरों को आभूषण समझ लेना। तोड़ने की तो बात दूर, कोई तोड़े तो उसे तोड़ने न देना। सपनों को सत्य समझ लेना और रास्ते के पड़ावों को मंजिल मान कर रुक जाना। बस, संसार का इतना ही अर्थ है। संसार न तो दुकान में है, न बाजार में है; न परिवार में है, न संबंधों में है। संसार है इस भ्रांति में, जो पड़ाव को मंजिल मान लेती है। संसार है इस अज्ञान में, जो क्षण भर के विश्राम को शाश्वत आवास बना लेता है।
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घोंसला बनाओ; जरूर बनाओ, सुंदर बनाओ, प्रीतिकर बनाओ। तुम्हारे सृजन की छाप हो उस पर। तुम्हारे व्यक्तित्व के हस्ताक्षर हों उस पर। फिर घोंसला हो, कि झोपड़ा हो, कि मकान हो, कि महल हो, अपनी सृजनात्मक ऊर्जा उसमें उंडेलो।
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मगर एक स्मरण कभी न चूके, सतत एक ज्योति बोध की भीतर जलती रहे: यह सराय है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, इसे छोड़ कर जाना है; जाना ही पड़ेगा। तो जिसे छोड़ कर जाना है, उसे पकड़ना ही क्यों ?
रह लो; जी लो; उपयोग कर लो। आग्रह न हो, आसक्ति न हो।
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ओशो
आनहद में विसराम-( प्रवचन-01
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