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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४४ दिन २६ =*
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*= जीवन्मुक्ति एवं विदेह मुक्ति वर्णन =*
दादू जब दिल मिला दयालु से, तब पलक न पड़दा कोय ।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकहि होय ॥
जब अपरोक्ष ज्ञान द्वारा ब्रह्म में मनोवृत्ति लय हो जाती है, तब आत्मा और ब्रह्म के बीच में एक पलक मात्र भी कामादि दोषरूप-पड़दा नहीं रहता है, निरंतर ब्रह्माकार वृति ही रहती है । जैसे वृक्ष के मूल, डाल और फल ये सब मिलकर बीज में एक रूप हो जाते हैं, वैसे ही मनोवृत्ति के ब्रह्म में लय होने पर कामादि सभी प्रपंच ब्रह्मरूप ही हो जाता है, भिन्न कुछ भी नहीं भासता ।
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अन्तगत आपा नहीं, मुख से मैं तैं होय ।
दादू दोष न दीजिये, यूं मिल खेलै दोय ॥
उक्त कथित स्थिति के समय यदि शरीर विद्यमान हो तो भी अन्तःकरण में भेदरूप जीवत्व अहंकार नहीं रहता है, केवल व्यवहार के लिये ही 'मैं, तू' व्यवहार होता है । उस ऊपर के 'मैं, तू, को देखकर ही उनको भेद भावना का दोष नहीं लगाना चाहिये । इस प्रकार उक्त कथित पद्धति से दोनों मिल जाने पर भी आत्मा परब्रह्म से पराभक्ति रूप खेल खेलता ही रहता है ।
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फिर दादूजी ने यह कहा -
"सत्संगति मगन पाइये, गुरु प्रसाद से राम गाइये ॥टेक॥
अकाश धरणि धरीजे, धरणी आकाश कीजे, शून्य मांहिं निरख लीजे ॥१॥
निरख मुक्ता हल मांहीं साइर आयो, अपने पिया हूँ ध्यावत खोजत पायो ॥२॥
सोच साइर अगोचर लहिये, देव देहुरे मांहीं कवन कहिये ॥३॥
हरि को हितारथ ऐसो लाखे न कोई, दादू जे पीव पावे अमर होई ॥४॥
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निरंतर सत्संग में लगे रहकर, कृपा पूर्वक सद्गुरु की बताई हुई विधि से राम गुण-गान करते हुये, राम को प्राप्त करो । ब्रह्मस्वरूप आकाश को वृत्ति रूप पृथ्वी में धरो अर्थात् निरंतर ब्रह्माकार वृत्ति रक्खो । वृत्ति रूप पृथ्वी को ब्रह्मरूप आकाश बनाओ अर्थात् वृत्ति को निर्विकार करो, फिर शून्य रूप सहज समाधि में परब्रह्म का साक्षात्कार कर लो ।
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इस प्रकार देखने पर ही, हृदय सरोवर में, परब्रह्म रूप मोती हमारी ज्ञान दृष्टि में आया है । हमने ध्यान तथा विचार द्वारा खोजते हुये ही अपने प्रभु को प्राप्त किया है । तुम भी विचार द्वारा हृदय-सरोवर में ही इन्द्रियातीत परब्रह्म को प्राप्त करो । परब्रह्म देव चूना पत्थर के मंदिर में ही है, यह कौन कहता है ? वह एक देशी नहीं हो सकता, सर्वत्र ही व्यापक है । अपने कल्याणार्थ हरि को उक्त प्रकार कोई भी अज्ञानी नहीं जानता ।
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यदि जानकार ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है तब तो वह ब्रह्म रूप होकर अमर हो जाता है । हे अकबर ! तुम उक्त स्थिति को समझ गए होंगे, इसी को विदेह मुक्ति कहते हैं । जनकादिक राजा तथा और भी जो विदेही कहे जाते हैं, वे उक्त स्थिति को प्राप्त होने पर विदेह कहे गए थे । प्राणी की पहले जिसमें मनोवृत्ति रहती है, वह उसी को प्राप्त होता है, अन्य को नहीं ।
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यह कह कर दादूजी बोले -
"जहँ मन राखे जीवतां, मरतां तिस घर जाय ।
दादू वासा प्राण का जहँ पहले रहा समाय ॥
जिसकी सुरति जहां रहै, तिस का तहँ विश्राम ।
भावे माया मोह में, भावे आतम राम ॥
बरतणि एकहि भांति सब, दादू संत असंत ।
भिन्न भाव अंतर घणा, मनसा तहँ गछंत ॥"
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उक्त प्रकार ब्रह्म में जिसकी वृत्ति लीन रहती है वह अंत में ब्रह्म में ही लय होता है । कारण, सूक्ष्म, स्थूल, इन त्रिदेहों को त्याग कर विदेह होता है और वह ब्रह्म में मिलकर ब्रह्मरूप से ही स्थित रहता है । इतना कहकर दादूजी महाराज मौन हो गये ।
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फिर अकबर बादशाह, बीरबल, आमेर नरेश भगवतदास आदि मुख्य-मुख्य श्रोताओं ने क्रम से दादूजी महाराज की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा - स्वामिन् ! आपने हमको कृतार्थ कर दिया है । इस प्रकार का ज्ञानोपदेश हम लोगों को पहले कहीं नहीं मिला था । आपके ही श्री मुख से सुनने को मिला है । हमारे भाग्योदय से आपका यहां पधारना हुआ है, हम अपने भाग्य की जितनी बड़ाई करें वह न्यून ही होगी । हम हमारे जीवन का यही समय विशेष रूप से सार्थक समझते हैं । अन्य समय तो व्यर्थ नष्ट हो गया है ।
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ऐसा कहते हुए धन्य-धन्य बोलकर खड़े हो गए फिर सबने परम हर्ष के साथ दादूजी को प्रणाम किया और दादूजी से आज्ञा मांगकर अपने-अपने वाहनों द्वारा अकबर आदि राज भवन को गये । बादशाह को राज भवन पहुँचाकर बीरबल, आमेर नरेश भी अपने-अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य भी अपने-अपने दैनिक साधन में संलग्न हो गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन २६ विन्दु ४४ समाप्तः ।
(क्रमशः)
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