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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*तत्त्व अतत्त्व कह्यौ नहिं जात जु,*
*शुंनि अशुंनि उरै न परै है ।*
*जोति अजोति न जांन सकै कोउ,*
*आदि न अंति जिवै न मरै है ।*
*रूप अरूप कछू नहिं दीसत,*
*भेद अभेद करै न हरै है ।*
*शुद्ध अशुद्ध कहै पुनि कौंन जु,*
*सुन्दर बोलै न मौंन धरै है ॥७॥*
उस ब्रह्म को न तत्त्व कहा जा सकता, अतत्त्व । न शून्य, न अशून्य । न इस पार न उस पार ।
वह न प्रकाश है, न अन्धकार । उस को साधारणतः कोई नहीं जान सकता क्योंकि इस का आदि भी नहीं है, अन्त भी नहीं है ।
न जीता है न मरता है । न यह रूपवान् है न नीरूप, न इसे भिन्न कहा जा सकता है न अभिन्न । न यह कर्ता है, न हर्ता है ।
न यह शुद्ध है न अशुद्ध । अतः इसे क्या कहा जा सकता है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह न बोलता है और न वह मौनी ही है ॥७॥
(क्रमशः)
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