३९३. ज्ञान प्रलय । मदन ताल ~
नाँहीं रे हम नाँहीं रे, सत्यराम सब माँहीं रे ॥ टेक ॥
नाँहीं धरणि अकाशा रे, नाँहीं पवन प्रकाशा रे ।
नाँहीं रवि शशि तारा रे, नहीं पावक प्रजारा रे ॥ १ ॥
नाँहीं पँच पसारा रे, नाँहीं सब संसारा रे ।
नहीं काया जीव हमारा रे, नहीं बाजी कौतिकहारा रे ॥ २ ॥
नाँहीं तरवर छाया रे, नहीं पंखी नहीं माया रे ।
नाँहीं गिरिवर वासा रे, नाँहीं समंद निवासा रे ॥ ३ ॥
नाँहीं जल थल खंडा रे, नाँहीं सब ब्रह्मंडा रे ।
नाँहीं आदि अनंता रे, दादू राम रहंता रे ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, ज्ञान प्रलय का स्वरूप दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! हम जिस स्थूल रूप से दिखाई दे रहे हैं, इस रूप से सत्य नहीं हैं । जो मैं राम, आत्म - स्वरूप से सत्य हूँ । वही मेरा स्वरूप नाम रूप जगत में व्यापक हो रहा है । यह धरती, आकाश, रवि, शशि, तारा - मंडल, यह कोई भी सत्य नहीं है । न प्रज्जवलित होने वाली अग्नि ही सत्य है । यह पँच महाभूतों का पसारा कुछ भी सत्य नहीं है और यह संसार भी सत्य नहीं है । न यह हमारी काया ही सत्य है और न जीव भाव ही सत्य है । न यह जगत रूप बाजी ही सत्य है । न इसका रचयिता ईश्वर ही सत्य है । न वृक्ष ही सत्य हैं, न उन पर रहने वाले पक्षी ही सत्य हैं, न उनकी छाया ही सत्य है । और न यह माया ही सत्य है । न पहाड़ ही सत्य हैं, न समुद्र ही सत्य है । न उनमें निवास करने वाले ही सत्य हैं । न जल ही सत्य है, न पृथ्वी ही सत्य है । न नव - खंड में बसने वाले ही सत्य हैं । यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही असत्य कहिए मिथ्या है अर्थात् न जिसका आदि है और न जिसका अन्त है, ऐसा केवल एक शुद्ध ब्रह्म - स्वरूप राम ही सत्य अचल है ।
दृष्टान्त ~ पूतना के दूध को श्री कृष्ण ने आँख मूँदकर बालक की तरह पीया था । जब उन्होंने आँखें खोलीं, तो पूतना का माया रूपी रूप नष्ट होकर मोक्ष को प्राप्त हो गया ।
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