बुधवार, 2 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४६ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= विन्दु ४६ दिन २८ =*
.
*= प्रेमा भक्ति तथा पराभक्ति वर्णन =*
२८वें दिन सूर्योदय होने पर अकबर सत्संग के लिये बाग में दादूजी के पास आये और प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सन्मुख बैठ गये, फिर बोले - स्वामिन् ! आपने कनिष्ठा(नवधा) भक्ति तो मुझे समझा दी है । अब मध्यमा(प्रेमा) भक्ति और उत्तमा(परा) भक्ति भी समझाने की कृपा करें । तब दादूजी बोले - अच्छा प्रथम मन लगाकर प्रेमाभक्ति सुनों ।
.
प्रेमाभक्ति - अन्य सबसे ममता हटकर एक अद्वैत राम में तथा राम नाम में अनन्य ममता होना । इसको ही नारद, उद्धव आदि भक्त आचार्य प्रेमा भक्ति कहते हैं । जिनके मन में उक्त प्रकार की मध्यमा(प्रेमा) भक्ति प्रकट नहीं होती है उनका मानव जन्म व्यर्थ ही चला जाता है । ऐसा कहकर बोले -
.
"प्रीति न होवे विरह बिन, प्रेम भक्ति क्यों होय ।
सब झूठी दादू भाव बिन, जानत हैं सब कोय ॥
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढ़ेगा एक ।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक ॥
प्रेम भक्ति माता रहै, ताला बेली अंग ।
सदा सपीड़ा मन रहै, राम रमे उन संग ॥
इश्क मुहब्बत मस्त मन, तालिब१ दर दीदार ।
दोस्त दिल हरदम२ हजूर, यादगार३ हुशियार ॥
.
प्रभु में प्रेम करने वाले को चाहिये - अपने मन को प्रभु के प्रेम में मस्त रक्खे, तथा वह जिज्ञासु१ प्रभु स्वरूप के दर्शनार्थ, चित्त की एकाग्रता रूप द्वार पर निरंतर स्थिर रहे । अपने हृदय को प्रतिश्वास२ प्रभु रूप मित्र के सन्मुख रक्खे और उसके नाम स्मरण३ में निरंतर सावधान रहे ।
.
पहले आगम विरह का, पीछे प्रीति प्रकाश ।
प्रेम मगन ले लीन मन, तहां मिलन की आश ॥
दादू पाती प्रेम की, विरला बांचे कोय ।
वेद पुराण पुस्तक पढैं, प्रेम बिना क्या होय ॥
दादू मारे प्रेम से, वेधे साधु सुजाण ।
मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण ॥
प्रीतम मारे प्रेम से, तिनको क्या मारे ।
दादू जारे बिरह के, तिनकों क्या जारै ॥
बाट विरह की शोध कर, पंथ प्रेम का लेहु ।
लै के मार्ग जाइये, दूसर पाव न देहु ॥
दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ ।
मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवन नाथ ॥
आतम चेतन कीजिये, प्रेम रस पीवे ।
दादू भूले देह गुण, ऐसे जन जीवे ॥
बे खुद खबर१ होशियार२ बाशद३, खुद खबर पामाल४ ।
बे कीमत मस्तानः गलतान, नूर प्याले ख्याल ॥
.
देहाध्यासादि रूप अपनी समझ१ को नष्ट४ करके बेपरवाह३ बुद्धिमान्२ मूल्य मापादि रहित परमात्मा के ज्ञान में मस्त और ब्रह्म में ही अपनी वृत्ति को लय करके ब्रह्म दर्शनानन्द-रस के प्याले का ही ख्याल रखता है, उसकी चित्त वृत्ति संसार की ओर नहीं जाती है ।
.
दादू खोई आपणी, लज्जा कुल की कार ।
मान बढ़ाई पति गई, तब सन्मुख सिरजन हार ॥
दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समय ।
अन्त न आवे जब लगे, तब लग पिवता जाय ॥
प्रेम भक्ति जब ऊपजे, निश्चल सहज समाधि ।
दादू पीवे राम रस, सतगुरु के सु प्रसाद ॥
प्रेम भक्ति जब ऊपजे, पंगुल ज्ञान विचार ।
दादू हरि रस पाइये, छूटे सकल विकार ॥
.
अपने प्रेम की स्थिति का परिचय दे रहे हैं -
ज्यों अमली के चित अमल है, शूरे के संग्राम ।
निर्धन के चित धन बसे, त्यों दादू के राम ॥
ज्यों कुंजर के मन वन बसे, अनल पाक्षि आकास ।
यूं दादू का मन राम से, ज्यों वैरागी वन खंड वास ॥
भँवरा लुब्धी वास का, मोह्या नाद कुरंग ।
यूँ दादू का मन राम से, ज्यों दीपक ज्योति पतंग ॥
श्रवणा राते शब्द से, नैना राते रूप ।
जिह्वा राती स्वाद से, त्यों दादू एक अनूप ॥
ज्यों चातक के चित जल बसे, ज्यों पाणी बिन मीन ।
जैसे चंद चकोर है, ऐसे दादू हरि से कीन्ह ॥
इस प्रभु प्रेम-रस के रसिक भक्त-विदुर, विदुरानी, भीलनी, कुंती, गोपियाँ, मनशूर, शिवली, बलख के सुलतान आदि अनेक भक्त हुये हैं, ऐसा कह कर फिर दादूजी ने यह पद बोला -
.
"राम रस मीठा रे, पीवे साधु सुजाण ।
सदा रस पीवे प्रेम से, सो अविनाशी प्राण ॥टेक॥
इहिं रस मुनि लागे सबहि, ब्रह्मा विष्णु महेश ।
सुर नर साधू संत जन, सो रस पीवे शेष ॥१॥
सिध साधक योगी यती, सती सबहि शुकदेव ।
पीवत अंत न आव ही, ऐसा अलख अभेव ॥२॥
इहिं रस राते नामदेव, पीपा अरु रैदास ।
पिवत कबीरा ना थक्या, अज हूँ प्रेम पियास ॥३॥
यहु रस मीठा जिन पिया, सो रस ही मांहिं समाय ।
मीठे मीठा मिल रह्या, दादू अनत न जाय ॥४॥"
उक्त पद में राम-प्रेम-रस की महत्ता तथा रसपान करने वालों का संकेत किया है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें