बुधवार, 2 दिसंबर 2015

पद. ४१०

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॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 


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४१०. अखंड प्रीति । गजताल ~
हमारो मन माई ! राम नाम रंग रातो ।
पिव पिव करै पीव को जानै, मगन रहै रस मातो ॥ टेक ॥ 
सदा सील संतोष सुहावत, चरण कँवल मन बाँधो ।
हिरदा माँही जतन कर राखूँ, मानों रंक धन लाधो ॥ १ ॥ 
प्रेम भक्ति प्रीति हरि जानूं, हरि सेवा सुखदाई ।
ज्ञान ध्यान मोहन को मेरे, कंप न लागे काई ॥ २ ॥ 
संगि सदा हेत हरि लागो, अंगि और नहिं आवे ।
दादू दीन दयाल दमोदर, सार सुधा रस भावे ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अखण्ड प्रीति दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारा तो मन अब एक राम नाम में ही राता = रत्त हो रहा है, और ‘हे पीव ! हे पीव !’ इस प्रकार रटता - रटता एक पीव को ही अपने जीव की जीवनी जानकर उनके प्रेम रस को पीकर मस्त हो रहा है । सदैव स्वभाव से ही, शील, ब्रह्मचर्य, संतोष आदि को धारण करके हृदय - कमल में प्रभु के तेज - पुंज रूपी चरणों में बिंध गया है । और हृदय प्रदेश में ही अब तो हमारे स्वामी राम को यत्नपूर्वक रखा है, जैसे रंक को धन प्राप्त हो जावे, तो वह उस धन का कभी त्याग नहीं करता । अब तो हमने एक हरि की ही प्रेमा - भक्ति रूप सेवा प्रीतिपूर्वक जानी है कि यही जीवन - मुक्ति रूपी सुख को देने वाली है । और अब हमारे हृदय में एक विश्‍व - विमोहन का ही ज्ञान - ध्यान है । पाप रूप कालिमा किसी प्रकार की अब हमें स्पर्श नहीं कर पाती । हरि के संग ही सदैव जब हमारी प्रीति लगी है, तब से हमारे हृदय में अब दूसरे की प्रीति नहीं आती है । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि वे अपने दीन - गरीब भक्तों पर दया करके दर्शन देने वाले हैं, विश्‍व के सार रूप उन्हीं का दर्शनरूपी अमृत - रस हमको भाता है अर्थात् प्रिय लगता है

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