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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*भूमि हु तैसैं हि आपु हु तैसैं हिं,*
*तेज हु तैसैं हिं तैसैं हि पौंना ।*
*व्यौमहु तैसैं हिं आहि अखंडित,*
*तैसैं हिं ब्रह्म रह्यौ भरि भौंना ।*
*देह संजोग विजौग भयौ जब,*
*आयौ सु कौंन गयौ कहि कौंना ।*
*जो कहिये तौ कहै न बनैं कछु,*
*सुंदर जांनि गही मुख मौंना ॥१०॥*
इस देह संयोग में भूमि, जल, तेज, वायु एवं आकाश सभी तत्व अपने अपने स्थान में हैं ।
इसी तरह ब्रह्म का स्थान भी जीव रूप से इस देह में नियत है ।
इस देह का पात(अन्त) होने पर कौन कहाँ से आया, या कौन कहाँ चला गया ? - यह ज्ञात नहीं होता ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस विषय में कुछ कहना चाहें तो भी कहा नहीं जा सकता । अतः मौन रहना ही अच्छा है ॥१०॥
(क्रमशः)
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