सोमवार, 28 दिसंबर 2015

= १२७ =

卐 सत्यराम सा 卐
मोहन माली सहज समाना, कोई जाणैं साध सुजाना ॥ टेक ॥
काया बाड़ी मांही माली, तहाँ रास बनाया ।
सेवग सौं स्वामी खेलन को, आप दया कर आया ॥ १ ॥
बाहर भीतर सर्व निरंतर, सब में रह्या समाई ।
परगट गुप्त, गुप्त पुनि परगट, अविगत लख्या न जाई ॥ २ ॥
ता माली की अकथ कहानी, कहत कही नहिं आवै ।
अगम अगोचर करत अनन्दा, दादू ये जस गावै ॥ ३ ॥
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~ 

--- ' एक सराय में एक रात्रि एक यात्री ठहरा था। वह जब पहुंचा तो कुछ यात्री विदा हो रहे थे। सुबह जब वह विदा हो रहा था तो और यात्री आ रहे थे। सराय में अतिथि आते और चले जाते, लेकिन आतिथेय वहीं का वहीं था। ' 

--- एक साधु यह कहकर पूछता था कि क्या यही घटना मनुष्य के साथ प्रतिक्षण नहीं घट रही है ?

--- मैं भी यही पूछता हूं और कहता हूं कि जीवन में अतिथि और आतिथेय को पहचान लेने से बड़ी और कोई बात नहीं है। शरीर-मन एक सराय है। उसमें विचार के, वासनाओं के, विकारों के अतिथि आते हैं। पर इन अतिथियों से पृथक भी वहां कुछ है। आतिथेय भी है। वह आतिथेय कौन है ?

--- यह 'कौन ' कैसे जाना जाये ? बुद्ध ने कहा है, 'रुक जाओ। '
और यह रुक जाना ही उसका जानना है। 

--- बुद्ध का पूरा वचन है, 'यह पागल मन रुकता नहीं, यदि रुक जाये तो वही बोधि है, वही निर्वाण है।' मन के रुकते ही आतिथेय प्रकट हो जाता है। 

--- यह शुद्ध, नित्य, बुद्ध, चैतन्य है। जो न कभी जन्मा, न मरा। न जो बद्ध है, न मुक्त्त होता है। जो केवल 'है', और जिसका होना परम आनंद है। 

--- आचार्य रजनीश(ओशो) ॥

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