मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

= १३० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सब ही मारग सांइयाँ, आगै एक मुकाम ।
सोई सन्मुख कर लिया, जाही सेती काम ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~ 
इस सदी की जो सबसे बड़ी खूबी है वह यही है कि सब शास्त्र सभी को उपलब्ध हो गए हैं। और लोग एक—दूसरे को समझने में उत्सुक भी हुए हैं। थोड़े समर्थ भी हुए हैं। सभी लोग हो गए हैं, ऐसा भी मैं नहीं कह रहा हूं। क्योंकि सभी लोग समसामयिक नहीं हैं।
अगर पूना में जाकर खोजो, तो कुछ होंगे जो दो हजार साल पहले रहते हैं अभी भी; कुछ होंगे जो पांच हजार साल पहले रहते हैं, अभी भी, कुछ हैं जिन्होंने कि अभी गुफाएं छोड़ी ही नहीं। कुछ थोड़े से लोग अभी रह रहे हैं, वे समझ सकते हैं। और कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी हैं जो कल के हैं, आने वाले कल के हैं, उनको बात बिलकुल साफ हो सकती है।
मनुष्य विकसित हुआ है, मनुष्य की चेतना बड़ी हुई है, बीच की सीमाएं टूटी हैं, बीच की दीवालें गिरी हैं। तो जो मैं कर रहा हूं, यह पहले संभव नहीं था। बुद्ध और महावीर ने भी चाहा होगा—मैं निश्चित कहता हूं कि चाहा होगा, न चाहा हो ऐसा हो ही नहीं सकता—लेकिन यह संभव नहीं था। छोटे बच्चे को तुम विश्वविद्यालय की शिक्षा दे भी नहीं सकते। उसे तो पहले स्कूल ही भेजना पड़ेगा। छोटी पाठशाला से ही शुरू करना पड़ेगा। और जो पाठशाला में सिखाया है, उसमें से बहुत कुछ ऐसा है जो विश्वविद्यालय में जाकर गलत हो जाएगा। उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसमें विश्वविद्यालय में जाकर पता चलेगा कि इसे सिखाने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन उसे भी सिखाना जरूरी था, अन्यथा विश्वविद्यालय तक पहुंचना मुश्किल हो जाता।
तो पहली तो बात यह खयाल रखो कि मनुष्य की चेतना का तल परिवर्तित होता है—गतिमान है, गत्यात्मक है। तो जो एक दिन संभव होता है, वह हर दिन संभव नहीं होता। जो मैं तुमसे कह रहा हूं यही बात अभी चीन में नहीं कही जा सकती है, यही बात रूस में नहीं कही जा सकती है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं यही बात मोहम्मद अगर चाहते भी अरब में आज से चौदह सौ साल पहले कहना, तो नहीं कह सकते थे। वहां सुनने वाला कोई न था। वहा समझने वाला कोई न था।
और बहुत सी बातें हैं जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं और नहीं कह रहा हूं क्योंकि तुम नहीं समझोगे। कभी—कभी उसमें से कोई बात कह देता हूं तो तल्ला अड़चन हो जाती है। कभी—कभी कोशिश करता हूं कुछ तुमसे कहने की, जो तुम नहीं समझोगे, भविष्य समझेगा। लेकिन जब तुमसे ऐसी कोई बात कहता हूं तभी मैं पाता हूं कि तुम बेचैन हो गए, तुम परेशान हो गए। जो तुम्हारी समझ में नहीं आता, उससे परेशानी बढ़ेगी, घटेगी नहीं। तुम उसके पक्ष में तो हो ही नहीं सकते—वह समझ में ही नहीं आता तो पक्ष में कैसे होओगे? तुम उसके विपरीत हो जाओगे, तुम उसके दुश्मन हो जाओगे।
तो बुद्ध ने और महावीर ने जरूर कहना चाहा होगा कि हम जो कहते हैं, एक ही बात कहते हैं—उस बात में कुछ भेद था भी नहीं, भाषा का भेद था, प्रत्यय का भेद था, धारणा का भेद था; अलग— अलग कहने के ढंग का भेद था। अलग— अलग मार्ग से पहुंचे थे वे एक ही मंजिल पर।...osho




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