मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

= ६६ =

卐 सत्यराम सा 卐
एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाण ।
राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परवाण ॥ 
पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ ।
चतुर्थी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥ 
===================================
साभार ~ Sankhla Urmila ~ ॐ श्री परमात्मने नमः
गुरुदेव जी की कृपा से :- वेदों में इसका उल्लेख है - 
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि'-
एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है-
बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा । बैखरी उसे कहते है जो व्यक्त हो जाये । नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनाई पड़े । मध्यमा अर्थात मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनें, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके । यह उच्चारण कण्ठ से होता है । धीरे-धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है । साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात नाम देखने की अवस्था आ जाती है । फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्वास में ढल जाता है । मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दे, देखते भर रहें कि साँस आती है कब ? कहती है क्या ? महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं । साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है । साँस को देखता भर है, इसलिये इसे 'पश्यन्ती' कहते हैं ।
पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता । एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा । न स्वयं जपें, न मन को सुनने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा । ऐसा नहीं कि जप प्रारम्भ ही न करें और आ गयी अजपा । यदि किसी ने जप नहीं आरम्भ किया, तो अजपा नाम की कोई भी वस्तु उसके पास नहीं होगी । अजपा का अर्थ है, हम न जपें किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े । एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे । इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यही है 'परावाणी का जप' । यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है । इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहीं है । परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है, इसलिये इसे परा कहते हैं । 
जय जय शंकर हर हर शंकर..........ॐ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें