रविवार, 27 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५६ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५६ दिन ३८*
*= दादू अवतार हेतु =*
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३८वें दिन प्रातःकाल ही अकबर बादशाह सत्संग के लिये दादूजी के पास बाग में आया और नम्रता पूर्वक प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सामने बैठ गया फिर बोला - स्वामिन् ! अपने मेरे पूर्व जन्म का वृत्तांत सुनाया । अब मुझे आप अपने जन्म का वृत्तांत भी सुनाइये । आप जैसे महात्मा ऋषि, मुनि तो सतयुग में हुआ करते थे, कलियुग में नहीं होते हैं फिर आप इस युग में कैसे पधारे है ?
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अकबर का उक्त कथन सुनकर दादूजी बोले -
"दादू नीकी बरियां आयकर, राम जब लीन्हा ।
आतम साधन शोधकार, कारज भल कीन्हा ॥"
जिस समय में आकर राम के नाम का चिन्तन किया जाय वही समय श्रेष्ठ है । हमने इस समय में ही आत्म ज्ञान के साधनों पर विचार करके परमात्मा प्राप्ति रूप उत्तम कार्य भलीभांति कर लिये हैं । अतः यह समय भी अच्छा ही है । कलियुग, सतयुग, सुर, असुर, अमृत, विष, ये सब भीतर ही होते हैं । किन्तु गुरु ज्ञान के बिना इनको कोई भी नहीं जान सकता । कुकृत ही कलियुग है । सत्य धर्म ही सतयुग है । सत्य धर्म को धारण करे सो देवता होता है, कुकृतों को धारण करे सो दानव होता है । जो कुकृत अपनावे उसी को असुर कहते हैं ।
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"विष अमृत घट में बसे, दोनों एकहि ठाम ।
माया विषय विकार विष, अमृत हरि का नाम ॥
काल रूप मांहीं बसे, कोइ न जाणे ताहिं ।
ये कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाहिं ॥
मन ही मांहीं मीच है, सारों के शिर साल ।
जे कुछ व्यापे राम बिन, दादू सोई काल ॥
विष अमृत घट में बसे, विरला जाणे कोय ।
जिन विष खाया ते मुये, अमर अमी से होय ॥
जेती लहरि विकार की, काल कवल में सोय ।
प्रेम लहरि सो पीव की, भिन्न भिन्न यूं होय ॥"
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अब तुम अपने प्रश्न के अनुसार इस शरीर के धारण करने का कारण भी सुनो, जिससे तुम्हारे मन का संशय भी दूर हो जायगा । ईश्वर की आज्ञा शिरोधार्य मानकर ही परमार्थ के लिये यह शरीर धारण किया है । यह कहकर कहा -
"परमारथ को सब किया, आप स्वारथ नांहिं ।
परमेश्वर परमारथी, कै साधू कलि मांहिं ॥"
परमेश्वर ने परमार्थ के लिये ही यह सोचकर आज्ञा दी थी कि संत भी परमार्थी ही होते हैं । हमने भी प्रभु की आज्ञानुसार सब कुछ परमार्थ के लिये ही किया है, स्वार्थ के लिये कुछ नहीं ।
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अकबर - पहले जन्म में आप कौन थे ? और प्रभु ने आपको क्या आज्ञा दी थी ? दादूजी ने कहा - हम सनकादिक में पहले सनक मुनि थे । प्रभु ने लोधीराम नागर के पौष्य पुत्र होने की आज्ञा दी थी । अकबर - लोधीराम कौन थे ? और कहां के थे ? दादूजी - लोधीराम नागर ब्राह्मण थे और गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद नगर के निवासी थे । वे श्रीमान् तो थे किन्तु उनके संतान नहीं थी । संतान के लिये वे नाना पुण्य कार्य करते थे । संतों की सेवा करते थे । ईश्वर की उपासना भी करते थे ।
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चिरकाल तक ऐसा करने पर प्रभु ने अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करना चाहा तब मुझे आज्ञा दी कि तुम गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद नगर निवासी लोधीराम नागर के पौष्य पुत्र होकर मेरी निर्गुण भक्ति का प्रचार करो । फिर प्रभु की आज्ञा मानकर मैंने संत के रूप में मार्ग में जाते हुये लोधीराम को दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का वर दिया और कहा - प्रातःकाल साबरमती नदी तट पर जब प्रहु की उपासना करते हो उसी समय नदी के प्रवाह में तुमको एक बालक मिलेगा उसी को तुम अपना पुत्र मान लेना और घर ले जाना । वह विलक्षण महापुरुष होगा ।
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फिर वि. सं. १६०१ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को प्रातःकाल ही अपनी योग शक्ति के द्वारा एक नौका के आकार का छोटासा सिंहासन बनाकर उस पर कमल पुष्पों के दल को बिछाकर तथा अपना रूप बालक बनाकर उस पर शयन करके मैं लोधीराम नागर के पास ही नदी प्रवाह से बहता हुआ आया । मुझे देखकर लोधीराम को पूर्व प्राप्त वर का स्मरण आ गया । उसने उठकर मुझे गोद में उठा लिया और पुत्र मानकर घर ले गया तथा अपनी पत्नी बसीबाई को सौंपकर कहा - यह पुत्र प्रभु ने अपने को दिया है । यही मेरे इस शरीर के धारण करने की संक्षिप्त कथा है ।
(क्रमशः)

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