रविवार, 27 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१४)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*अग्नि मथन करि लकरी काढी,*
*सो वह लकरी प्रान आधार ।* 
*पानी माथि करि घीव निकार्यौ,*
*सो घृत पाइये बारंबार ॥* 
*दूध दही की इच्छा भागी,*
*जाकौ मथत सकल संसार ।* 
*सुन्दर अब तौ भये सुखारे,*
*चिन्ता रही न एक लगार ॥१४॥* 
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*= ह० लि० १ टीका =* 
अग्नि = विरह अग्नि । लकरी = लय । पानी = प्रेम । घीव = ज्ञान, दूध-दही = कर्म काण्ड । वा खाटामीठा भोग ॥१४॥  
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*= ह० लि० २ टीका =*  
विरहरूप जो अग्नि ताको जो अतिगति उदै करना सोई मथन । ता करी उदै भई जे भगवत के विषै लयवृत्ति सोई लकरी काढी नाम लै सिद्ध करी जो बोलै है सो प्राण नाम जीव कों अति आनन्द की दाता आधाररूप है । 
- पानी जो प्रेम जासों अंतहकरण द्रवीभूत होय जाय सो पानी ताको अत्यन्तपणों सोई मथणों ता करी उत्पन्न हुवो ज्ञान सर्वसिरोमणी घी वा घी कों बारंबार खाइजै नाम वा ज्ञानरस ही में अखण्डलीन रहै है
-दूध- जो शुभाशुभ -कर्म, दही नाम तिन कर्मन सूं उत्पन्न हवा खाटा-खारा सुख-दुःखादि भोग तिनकी इच्छा भोगी जा दही कों सर्वसंसार मथत नाम भोगै हैं ।  
-  अब तो निहकाम होय सर्वप्रकार की कामनारूप चिंता गई सर्वप्रकार करि सुखी भये ॥१४॥
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*= पीताम्बरी टीका =* 
अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत ये तीन जो ताप हैं तिन करि सर्व अज्ञजीव जलै हैं सो जलानेवाली यह देहादि सृष्टि है सोई मानों अग्नि है । ताकों मथन कहिये “यह सब जगत् मिथ्या है” इत्यादि निश्चय तेन विवेचन करि लकरी काढो कहिये जैसे अग्नि का आधार काष्ट है तैसे इस सृष्टिरूप अग्नि का आधार संवित्(चेतन) है । सोई मानौं लकरी है ताकूं यथार्थ जानी सोई मानौ काढी है । सो वह लकरी प्राण का आधार है कहिये प्राणादि सर्व प्रपंच का अधिष्ठान चेतन है । 
यह असार नाम-रूपात्मक जो जगत् है सोई मानौ जल है, ताकूं मथनकरि कहिये विवेचनकरि अस्ति भांति और प्रियरूप ब्रह्मानन्द ही मानौ घीउ निकास्यो । अथवा मनरूप जो जल है ताकूं मथनकरि कहिये साधनचतुष्टयसम्पन्न करि ब्रह्मानन्दरूप मोक्ष ही मानो घीउ निकास्यो । अथवा सत् शास्त्र ही पानी है ताकूं मथनकरि कहिये बिचारकरि ज्ञानरूप माखन द्वारा ब्रह्मानन्दरूपी जीव घीव निकास्यो कहिये प्रगट कियो । सो घृत बारंबार खायो कहिये बिचार-दशा में अपनी जानि के अनुभव कियो । 
जांकू सकल संसार मथत है संसारी जीव चाहकरि खोजते हैं ऐसे जो परलोक के भोग हैं सोई मानौ दूध है । औ इस लोक के जो भोग है सोई मानौ दही है तिनकी इच्छा भागी कहिये भंग हो गई । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि अब तो हम सुखारे कहिये परम आनंदित भये । औ एक लगार कहिये किंचित्मात्र भी चिन्ता न रही अर्थात् सर्वजन्मादि अनर्थ तें छूटे ॥१४॥  

*= सुन्दरदासजी की साखी =*
“अग्नि मथनकर नीकरी, लकरी सहज सुभाइ । 
पानी मथि घृत काढियो, सो घृत सुंदर षाइ” ॥२२॥ 
(क्रमशः)

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