सोमवार, 28 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१५)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पात्र मांहिं झोली राखै,*
*योगी भिक्षा मांगन जाइ ।* 
*जागै जगत सोवइ गोरख,*
*ऐसा शब्द सुनावै आइ ।*
*भिक्षा फुरै बहुत करि ताकौं,*
*सो वह भिक्षा चेलहि पाइ ।* 
*सुन्दर योगी युग युग जीवै,*
*ता अवधू की दूरि बलाइ ॥१५॥*
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*= ह० लि० १ टीका =*  
पात्र =  हृदो । झोली = गुणां की झकझोल । गहिराखै = रोकै । जोगी = जीव । भिख्या = ब्रह्म दर्शन । जागै = प्रवृत्ति में रहै । सोवई = समाधि में सोवै । गोरख = संत । भीखा फुरै = ब्रह्मदर्शन की चाह होवै । चेला = इन्द्रिय ॥१५॥

*= ह० लि० २ टीका =*  
पात्र नाम जो शुद्ध ह्रदो, तामें झोली नाम कर्मन की नानाप्रकार की झकझोली गुणां की वा, सो राखी नाम रोकी । योगी जो जीव सो भिक्षा नाम ब्रह्मदर्शन माँगन जाय, नाम बाह्य-वृत्ति छोड़ अंतरनिष्ठ होणाँ सोई जावणाँ । 
योगी जब भिक्षा को जाय तब-तब गोरख ऐसो शब्द करै या रीती है परम्परा सों । अरु या जीव जोगी को यह शब्द ‘जागै जगत सोवई गोरख’ याके अर्थ यह है जो संसार है सो प्रवृत्ति मार्ग में जागै हैं । नाम अत्यन्त सावधान होयके वतैं है । अरु गोरख योगी है सो जगत मार्ग तरफ अचेत होयकरि ब्रह्मानन्द समाधि में सुख सोवै है, सदा ही ब्रह्मनन्द समाधि में लीन रहै है । ता - जीव योगी को । 
वा ब्रह्मदर्शनरूप भिक्षा बहुत फुरै नाम बहुत परिपूर्ण प्राप्ति होवै है - योगी की भिक्षा कों चेला खाहि या रीति होवै है अरु योगी की भिक्षा ने खाय चेला नाम इन्द्रियाँ की वृत्ति सो ब्रह्म - दर्शन जब हुवा तब उन वृतियां को अभाव होय गयो-सो यो जीव योगी ब्रह्मानन्द स्वरूप कों पाय जन्ममरण रहित होय करि सदा चिरंजीव होय कै सुखी हुवो । 
अवधूत नाम सर्वगुण इंद्रिय विकार रहित ता योगी की बलाय नाम आधिव्याधि कर्म - कालरूप विघ्न दूरि गया सर्व निबृति होय गया ॥१५॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
साभास अंतःकरण सहित आत्मरूप जो ज्ञानी जीव है सोई मानो योगी है । औ हृदयरूप पात्र है ता मांहि बुद्धिरूप झोली कूं गहि कहिये एकाग्रकरि राखै कहिये अंतर्मुख करै । औ निजानंद आविर्भाव है सोई मानौ भिक्षा है सो बिचाररूप पगन करि मांगन जात है कहिये स्वरूपाकार होवै है । 
अनंत संसारी जीवन के जो समूह है ताकूं यहाँ जगत कहिये सो जागै कहिये कछुक कर्त्तव्य मानिकै तामैं प्रवृत्ति करै हैं । औ गो कहिये इंद्रिय है ताकूं साक्षिता करि रख कहिये प्रकाशनेवाल जो आत्मस्वरूप है ताकूं यहाँ गोरख कहै हैं, सो सोवई कहिये सर्व कर्त्तव्य रहित असंग ब्रह्मरूप होने तैं स्वमहिमा में ज्यूं का त्यूं विराजै है । औ जो शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि है तामें आइके “अहं ब्रह्मास्मि” ऐसा शब्द सुनावै है कहिये स्वरूप में स्थिति करने के वास्तै वहिर्मुखनकूं तिस वाक्यार्थ का अभ्यास करावै है । 
त्रिपुटीभानरहित अखंडब्रह्माकार अंतःकरण की वृत्ति की जो स्थिति(निर्विकल्प समाधि) है । सो इहां भिक्षा कही है । ताकूं कहिये ता वृत्ति की स्थिति के अर्थ पूर्वोक्त ज्ञानीरूपी गुरु(पाठांतर ‘करि’ का) बहुत फिरै है कहिये तिसके अभ्यास की प्रबलतापूर्वक पुनः पुनः प्रर्क्ते है । सो वही भिक्षा मनरूप चेले ने खाइ । सो प्रकार यह है -  अनुभव - क्षण में तिस वृत्ति कूं अपने में लय करि लेवै है । भाव यह है -निर्विकल्प समाधि - काल में वृत्ति की प्रतीति होवै नहीं । 
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि ऐसा जो योगी है सो जीवभाव कूं छौड़िकै अमर आत्मारूप होने तें युग  -  युग कहिये तीनूं काल में जीवै है कहिये अविनाशी ब्रह्मरूप से अवस्थित होवै है । औ ता ब्रह्मभूत अवधूत योगी की बलाइ कहिये जन्मादि अनर्थरूप आधिव्याधि दूर कहिये निवृत्त भई है ॥१५॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*  
“पात्र मांहि झोली धरै जोगी मांगै भीष । 
सोवै गोरष यौं कहै, सुन्दर गुरु की सीष” ॥२३॥ 
= दादूजी का पद =  
“जागत सूते सोवत सूते” .... ॥३०७॥ 
(क्रमशः)

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