🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५६ दिन ३८*
*= नशा प्रसंग =*
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दादूजी के जन्म का कारण सुनकर अकबर अति प्रसन्न हुआ और बोला - स्वामिन् ! बहुत से संत भंग नामक बूंटी पीते हैं और कहते हैं इसे महादेव भी पीते हैं । आप भी पीते हों तो उसका प्रबन्ध कर दिया जाय ।
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अकबर की उक्त बात सुनकर दादूजी बोले - महादेवजी की समता कभी नहीं करनी चाहिये और उनकी समता किसी से होती भी नहीं है । महादेवजी ने कालकूट महाविष पान करके भी पचा लिया था । अब कोई पीकर के पचा सकता है क्या ? वह महाविष भी लोक कल्याण के लिये ही पान किया था, नशा के लिये नहीं ।
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जो भंग पीना संतता का लक्षण बताते हैं, वे तो व्यसनी होते हैं । भंग से तो बुद्धी विकृत हो जाति है । ज्ञान ध्यान सब नष्ट हो जाते हैं । पशु के सामान अधिक खाने लगता है, फिर रोग बढ़ जाते हैं । भांग पीने से कोई भी मस्त नहीं होता है प्रत्युत दीन बनता है ।
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क्यों ? नशे पैसे से ही किये जाते हैं और नशों के प्रमाद से द्रव्य नष्ट हो जाता है, तब दीन होकर जन-जन से माँगता है । गृहस्थ तो धन कमा भी सकता है किन्तु साधु को तो नशा के लिये दीन होकर माँगना ही पड़ता है । अतः व्यसनी साधु मस्त नहीं रह सकता । संत, शास्त्रों ने तो नशा के व्यसनी को संत नहीं कहकर मूर्ख कहा है । नशा करने वालों की स्थिति तुम ध्यान देकर सुनो -
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"दादू बगनी१ भंगा खायकर, मतवाले मांझी२ ।
पैका३ नांहीं गांठड़ी, पातशाह का खांजी४॥
दादू टोटा दालदी, लाखों का व्यापार ।
पैका नांहीं गांठड़ी, सिरै५ साहूकार ॥
भरी अधोड़ी६ भावठी७, बैठा पेट फुलाय ।
दादू शूकर श्वान ज्यों, ज्यों आवे त्यों खाय ।
पशुवां की नांई भर भर खाय, व्याधि घणेरी बधती जाय ।
पशुवां की नांई करे हार, दादू बाढ़े रोग अपार ॥
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(१. नशीला घास, २. मध्यस्थ, ३. पैसा, ४. खजांची, ५. एक नम्बर का, ६. चमार के यहां साफ़ करने के लिये पानी से भरकर लटकाई हुई पशु की चमड़ी, ७. उक्त चमड़ी के लटकने का स्थान ।)
सुलफा गांजा पीने से भी खांसी आदि रोग होकर शरीर क्षीण हो जाता है फिर भजन साधन होता ही नहीं है और कोई-कोई के तो अधिक पीने से दिमाग में नशा चढ़ जाता है जिससे दिमाग खराब हो जाता है फिर वह पागल के सामान कुछ का कुछ बकता रहता है ।
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तमाखू का खाना, पीना और सूंघना भी जीवन को खराब ही करता है । जिनसे तम्बाकू पीना भी नहीं छूटता उनसे क्रोधादि कैसे छूट सकते हैं ? जब तक विकार नहीं छूटते तब तक सत्संग भी सफल नहीं माना जाता है ।
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"भाव१ भक्ति उपजे नहीं, साहिब का सु प्रसंग२ ।
विषै विकार छूटें नहीं, सो कैसा सत्संग ॥
जिस सत्संग में परमात्मा से दृढ संबन्ध२ कराने वाली प्रेमा१-भक्ति नहीं उत्पान होती और विषय विकार नहीं छूटते, वह कैसा सत्संग है ? अर्थात् वह सत्संग नहीं होकर कुसंग ही है । फिर सत्संग बिना संत कैसे हो सकता है ? अतः मादक पदार्थों का सेवन संत कभी नहीं करते हैं, वे निरंतर प्रभु का स्मरण करते हैं । जो नशेबाज होते हैं वे मात्र भेष से ही संत बने हुये होते हैं । वास्तव में उनमें संतपना नहीं होता है क्यों ? शास्त्र तथा संतों ने संतों के लक्षण कहे हैं, वे उनमें घटते ही नहीं हैं ।
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जोगी जंगम सेवड़े, बोध सन्यासी शेख ।
षट दर्शन१ दादू राम बिन, सबहि कपट के भेख ॥
जोगी जंगमादिक छः प्रकार के भेष१ धारी राम के भजन के बिना केवल भेषमात्र से बने हुये कपट के ही संत माने जाते हैं और इनमें ईश्वर भक्त ज्ञानी आदि होते हैं वे ही सच्चे संत माने जाते हैं । इससे न नशा करने से और न संत का भेष बनाने से संत होता है । संत के लक्षण जिसमें घटते हों वही संत होता है । वह भेषधारी हो या नहीं हो ।
(क्रमशः)
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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५६ दिन ३८*
*= नशा प्रसंग =*
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दादूजी के जन्म का कारण सुनकर अकबर अति प्रसन्न हुआ और बोला - स्वामिन् ! बहुत से संत भंग नामक बूंटी पीते हैं और कहते हैं इसे महादेव भी पीते हैं । आप भी पीते हों तो उसका प्रबन्ध कर दिया जाय ।
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अकबर की उक्त बात सुनकर दादूजी बोले - महादेवजी की समता कभी नहीं करनी चाहिये और उनकी समता किसी से होती भी नहीं है । महादेवजी ने कालकूट महाविष पान करके भी पचा लिया था । अब कोई पीकर के पचा सकता है क्या ? वह महाविष भी लोक कल्याण के लिये ही पान किया था, नशा के लिये नहीं ।
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जो भंग पीना संतता का लक्षण बताते हैं, वे तो व्यसनी होते हैं । भंग से तो बुद्धी विकृत हो जाति है । ज्ञान ध्यान सब नष्ट हो जाते हैं । पशु के सामान अधिक खाने लगता है, फिर रोग बढ़ जाते हैं । भांग पीने से कोई भी मस्त नहीं होता है प्रत्युत दीन बनता है ।
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क्यों ? नशे पैसे से ही किये जाते हैं और नशों के प्रमाद से द्रव्य नष्ट हो जाता है, तब दीन होकर जन-जन से माँगता है । गृहस्थ तो धन कमा भी सकता है किन्तु साधु को तो नशा के लिये दीन होकर माँगना ही पड़ता है । अतः व्यसनी साधु मस्त नहीं रह सकता । संत, शास्त्रों ने तो नशा के व्यसनी को संत नहीं कहकर मूर्ख कहा है । नशा करने वालों की स्थिति तुम ध्यान देकर सुनो -
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"दादू बगनी१ भंगा खायकर, मतवाले मांझी२ ।
पैका३ नांहीं गांठड़ी, पातशाह का खांजी४॥
दादू टोटा दालदी, लाखों का व्यापार ।
पैका नांहीं गांठड़ी, सिरै५ साहूकार ॥
भरी अधोड़ी६ भावठी७, बैठा पेट फुलाय ।
दादू शूकर श्वान ज्यों, ज्यों आवे त्यों खाय ।
पशुवां की नांई भर भर खाय, व्याधि घणेरी बधती जाय ।
पशुवां की नांई करे हार, दादू बाढ़े रोग अपार ॥
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(१. नशीला घास, २. मध्यस्थ, ३. पैसा, ४. खजांची, ५. एक नम्बर का, ६. चमार के यहां साफ़ करने के लिये पानी से भरकर लटकाई हुई पशु की चमड़ी, ७. उक्त चमड़ी के लटकने का स्थान ।)
सुलफा गांजा पीने से भी खांसी आदि रोग होकर शरीर क्षीण हो जाता है फिर भजन साधन होता ही नहीं है और कोई-कोई के तो अधिक पीने से दिमाग में नशा चढ़ जाता है जिससे दिमाग खराब हो जाता है फिर वह पागल के सामान कुछ का कुछ बकता रहता है ।
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तमाखू का खाना, पीना और सूंघना भी जीवन को खराब ही करता है । जिनसे तम्बाकू पीना भी नहीं छूटता उनसे क्रोधादि कैसे छूट सकते हैं ? जब तक विकार नहीं छूटते तब तक सत्संग भी सफल नहीं माना जाता है ।
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"भाव१ भक्ति उपजे नहीं, साहिब का सु प्रसंग२ ।
विषै विकार छूटें नहीं, सो कैसा सत्संग ॥
जिस सत्संग में परमात्मा से दृढ संबन्ध२ कराने वाली प्रेमा१-भक्ति नहीं उत्पान होती और विषय विकार नहीं छूटते, वह कैसा सत्संग है ? अर्थात् वह सत्संग नहीं होकर कुसंग ही है । फिर सत्संग बिना संत कैसे हो सकता है ? अतः मादक पदार्थों का सेवन संत कभी नहीं करते हैं, वे निरंतर प्रभु का स्मरण करते हैं । जो नशेबाज होते हैं वे मात्र भेष से ही संत बने हुये होते हैं । वास्तव में उनमें संतपना नहीं होता है क्यों ? शास्त्र तथा संतों ने संतों के लक्षण कहे हैं, वे उनमें घटते ही नहीं हैं ।
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जोगी जंगम सेवड़े, बोध सन्यासी शेख ।
षट दर्शन१ दादू राम बिन, सबहि कपट के भेख ॥
जोगी जंगमादिक छः प्रकार के भेष१ धारी राम के भजन के बिना केवल भेषमात्र से बने हुये कपट के ही संत माने जाते हैं और इनमें ईश्वर भक्त ज्ञानी आदि होते हैं वे ही सच्चे संत माने जाते हैं । इससे न नशा करने से और न संत का भेष बनाने से संत होता है । संत के लक्षण जिसमें घटते हों वही संत होता है । वह भेषधारी हो या नहीं हो ।
(क्रमशः)
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