मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१६)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*“निर्द्दय होइ तिरै पशु घातक,*
*दयावंत बूडै भव मांहि ।* 
*लोभी लगै सवनि कौं प्यारौ,*
*निर्लोभी काउ ठाहर नांहि ॥*
*मिथ्यावादी मिलै ब्रह्म कौं,*
*सत्य कहै ते जमपुर जांहिं ।* 
*सुन्दर धूप मांहिं सीतलता,*
*जलत रहै जे बैठैं छांहिं ॥१६॥”* 
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*= ह० लि० १ टीका =* 
निर्द्दय = सूरवीर । पशु = इन्द्रियां । पशुघातक = इन्द्रियजीत । दयावंत = इन्द्रियपालक । लोभी = भजन का लोभी । मिथ्यावादी = जगत । धूप = इन्द्रिय कसणी । छांहि = इन्द्रिय भोग ॥१६॥ 
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*= ह० लि० २ टीका =*  
निर्दय नाम अति कठोर सूरवीर होय करि, जो अपणे विषयरूपी चारा में विचर रही इंद्रियवृत्ति पशु, पशु क्यूं ? पशु भी तृप्ति कोई मानैं नहीं । तिनां को घातिक नाम जीति मारि करि निवारै सो या संसारसमुद्र कों तिरै ।  - अरु दयावंत होय इन्द्रियरूप पशुन कों विषयभोग भक्ष देकै पालै सो या भव मैं बूडै । 
लोभी भजन को अति काठो होयकै लागै अनेक दुःख संकट विघ्न आय पड़ै तौभी छोड़ै नहीं सो सबकों प्यारो लागै । “प्यारा तीनों लोक में जाकै हिरदै नाम” जाके भजन का लोभ दृढ़ता सो नाहीं ताकौं कहूं भी ठाहर ठिकाणा सुख नांही । 
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मिथ्यावादी नाम जगत मिथ्या मिथ्या यों बोलै अखंड यों ही जाणैं सो ब्रह्मकों मिलै । और जग - व्यवहार सों अध्याय बांधि जगत कों सत्य कहै सो यमपुर जांय । 
धूप नाम इन्द्रियों के कसणी देकै जीतणों तामें जन्मांतर पर्यत सीतलता पाकर सुखी रहै । छांहि जो इन्द्रियां का विषयभोग तिनां को सुख मानि भोगणां सोइ छाया बैठणां उनका फल जन्मांतर में जरबो करै नाम दुःखी ही रहै ॥१६॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =*  
जो पुरुष निर्दय कहिये अडिग मनवाला होइ और इन्द्रिय - समूह या राग - द्वेषादिकन के समूह रूप पशुन का घातक कहिये जीतने वाला होइ । अथवा जो पुरुष सर्व देहादिक अनात्मवास्तु - समूहतारूप पशु का घातक कहिये ज्ञान द्वारा मिथ्यापने का निश्चय करने वाला । वा - तीनकाल - अभाव का निश्चय करने वाला होवै । सो पुरुष जन्मादि अनर्थरूप संसार - सागर कूं तरै है । कहिये उलंघन करै है । 
जो पुरुष दयावंत कहिये इन्द्रिय कूं निग्रह करने में वा रागादिक जीतने में वा सकल अनात्मा के बाध करने में सिथिल(असमर्थ) होवै है सो पुरुष भव-सागर मांहि बूड़े कहिये जन्मादि अनर्थनकूं पावै है । 
जो पुरुष ब्रह्मानन्द लाभ में लोभी कहिये तिसी के परायण अभ्यासी होवै होवै सो पुरुष सबन को प्यारो कहिये परमेश्वर की न्याई पूजनीय लगै । जो पुरुष निर्लोभी कहिये उक्त लोभी तेन विपरीत होवै ताकूं ब्रह्मानन्दरूप ठाहर कहिये स्थान नांहि मिलै । अर्थात् ताकूं परमानंद की प्राप्ति होवै नहीं । 
माया अविद्या और तिनकै कार्य जो स्थूल है ताकूं मिथ्या(असत्) कथन का जो बादी होवै सो ब्रह्मकूं मिलै कहिये प्राप्त होवै । औ जो मायादिकन कूं सत्य कहै ते यमपुर जांहि कहिये नरकादि दुःखन का अनुभव करै है । 
सुन्दरदासजी कहैं है कि श्रवणादि साधन के अभ्यासरूप धूप मांहि । वा ज्ञानरूप प्रकाश में शीतलता कहिये शांति होवै है । जो पुरुष श्रवणादि साधन के अनभ्यासरूप छांहि कहिये छाया में अथवा मूला अज्ञानरूप अप्रकाशस्वरूप छाया में बैठे कहिये आलसी होय के स्थित होवै सो पुरुष त्रिविध-ताप अग्नि में जरत रहै कहिये जलता ही रहै ॥१६॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
“जोई व्है अति निर्दई, करै पशुन की घात । 
सुन्दर सोई उद्धरै, और बहे सब जात” ॥२६॥  
(क्रमशः) 

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