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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५६ दिन ३८*
*= भेष प्रसंग =*
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"पीव न पावे बावरी, रचि रचि करे सिंगार ।
दादू फिर फिर जगत से, करेगी व्यभिचार ॥
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे सिंगार ।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार ॥
दादू पहुँचे पूत बटाउ होयकर, नट ज्यों काछ्या भेख ।
खबर न पाई खोज की, हमको मिला अलेख ॥
दादू कबहू कोई जनि मिले, भक्त भेष से जाय ।
जीव जन्म का नाश हो, कह अमृत विष खाय ॥
उक्त प्रकार के भेषमात्र के भक्तों से अपना कोई उद्धार चाहने वाला क्यों मिले अर्थात् उसको कभी भी नहीं मिलना चाहिए । उनके संग से जीव का मानव जन्म व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है । वे कहते तो अमृतरूप राम की बातें और खाते हैं विषय विकार रूप विष । अतः उनके संग से उद्धार होने की संभावना सर्वथा नहीं है ।
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दादू पंथों पड़ गये, बपुड़े१ बारह बाट ।
इनके संग न जाइये, उलटा अविगत२ घाट३॥
जो बेचारे१ भूल से केवल भेषमात्र के संतों के पंथों में पड़ गये हैं, वे दंभ के द्वारा बारह बाट हो गये हैं अर्थात् उनके मन, मति आदि नाना असत विचारों से छिन्न-भिन्न हो गये हैं । प्रभु प्राप्ति का साधन मार्ग उनको नहीं मिल सका । अतः उक्त प्रकार के दंभियों के संग में नहीं जाना चाहिये । मत इन्द्रियों के अविषय२ परब्रह्म की प्राप्ति का घाट तो उनसे विपरीत चलने से ही प्राप्त होता है अर्थात् दंभ त्यागकर प्रेमपूर्वक प्रभु का भजन करने से ही प्रभु साक्षात्कार का ज्ञान३ रूप घाट प्राप्त होता है । बिना ब्रह्म ज्ञान के परब्रह्म के साक्षात्कार का अन्य साधन नहीं है ।
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पंथ चले ते प्राणियाँ, तेता कुल व्यवहार ।
निरपख साधू सो सही, जिनके एक अधार ॥
अपणे अपणे पंथ की, सब को कहैं बढ़ाय ।
ता तैं दादू एक से, अंतर गति लयों लाय ॥
कु संगति सब परिहरी, मात-पिता कुल कोय ।
सजन सनेही बाँधवा, भावे आपा होय ॥
इतना कहकर सत्संग का समय समाप्त होने पर दादूजी मौन हो गए । फिर बादशाह अकबर, बीरबल, आमेर नरेश भगवतदास आदि ने दादूजी महाराज के उक्त पक्षपात रहित यथार्थ उपदेश का समर्थन किया और अकबर ने कहा स्वामिन् ! आप सर्वथा उचित ही उपदेश करते हैं । किसी भी प्रकार का पक्षपात आपके उपदेश में नहीं दिखाई देता है, यह आपकी एक महान् विशेषता है । यह गुण सब में नहीं मिलता है, तभी तो मैं आपके पास ३८ दिन से बराबर आ रहा हूँ, नहीं तो मुझे एक दिन का भी आना कठिन पड़ता है । इतना कहकर अकबर उठा और दादूजी के चरणों में प्रणाम करके तथा आज्ञा माँगकर बीरबल आदि के साथ राजभवन को चला गया । फिर अन्य सब श्रोता भी अपने अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य संत भी अपनी अपनी दैनिक साधना में लग गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३८ विन्दु ५६ समाप्तः =
(क्रमशः)
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लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५६ दिन ३८*
*= भेष प्रसंग =*
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"पीव न पावे बावरी, रचि रचि करे सिंगार ।
दादू फिर फिर जगत से, करेगी व्यभिचार ॥
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे सिंगार ।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार ॥
दादू पहुँचे पूत बटाउ होयकर, नट ज्यों काछ्या भेख ।
खबर न पाई खोज की, हमको मिला अलेख ॥
दादू कबहू कोई जनि मिले, भक्त भेष से जाय ।
जीव जन्म का नाश हो, कह अमृत विष खाय ॥
उक्त प्रकार के भेषमात्र के भक्तों से अपना कोई उद्धार चाहने वाला क्यों मिले अर्थात् उसको कभी भी नहीं मिलना चाहिए । उनके संग से जीव का मानव जन्म व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है । वे कहते तो अमृतरूप राम की बातें और खाते हैं विषय विकार रूप विष । अतः उनके संग से उद्धार होने की संभावना सर्वथा नहीं है ।
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दादू पंथों पड़ गये, बपुड़े१ बारह बाट ।
इनके संग न जाइये, उलटा अविगत२ घाट३॥
जो बेचारे१ भूल से केवल भेषमात्र के संतों के पंथों में पड़ गये हैं, वे दंभ के द्वारा बारह बाट हो गये हैं अर्थात् उनके मन, मति आदि नाना असत विचारों से छिन्न-भिन्न हो गये हैं । प्रभु प्राप्ति का साधन मार्ग उनको नहीं मिल सका । अतः उक्त प्रकार के दंभियों के संग में नहीं जाना चाहिये । मत इन्द्रियों के अविषय२ परब्रह्म की प्राप्ति का घाट तो उनसे विपरीत चलने से ही प्राप्त होता है अर्थात् दंभ त्यागकर प्रेमपूर्वक प्रभु का भजन करने से ही प्रभु साक्षात्कार का ज्ञान३ रूप घाट प्राप्त होता है । बिना ब्रह्म ज्ञान के परब्रह्म के साक्षात्कार का अन्य साधन नहीं है ।
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पंथ चले ते प्राणियाँ, तेता कुल व्यवहार ।
निरपख साधू सो सही, जिनके एक अधार ॥
अपणे अपणे पंथ की, सब को कहैं बढ़ाय ।
ता तैं दादू एक से, अंतर गति लयों लाय ॥
कु संगति सब परिहरी, मात-पिता कुल कोय ।
सजन सनेही बाँधवा, भावे आपा होय ॥
इतना कहकर सत्संग का समय समाप्त होने पर दादूजी मौन हो गए । फिर बादशाह अकबर, बीरबल, आमेर नरेश भगवतदास आदि ने दादूजी महाराज के उक्त पक्षपात रहित यथार्थ उपदेश का समर्थन किया और अकबर ने कहा स्वामिन् ! आप सर्वथा उचित ही उपदेश करते हैं । किसी भी प्रकार का पक्षपात आपके उपदेश में नहीं दिखाई देता है, यह आपकी एक महान् विशेषता है । यह गुण सब में नहीं मिलता है, तभी तो मैं आपके पास ३८ दिन से बराबर आ रहा हूँ, नहीं तो मुझे एक दिन का भी आना कठिन पड़ता है । इतना कहकर अकबर उठा और दादूजी के चरणों में प्रणाम करके तथा आज्ञा माँगकर बीरबल आदि के साथ राजभवन को चला गया । फिर अन्य सब श्रोता भी अपने अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य संत भी अपनी अपनी दैनिक साधना में लग गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३८ विन्दु ५६ समाप्तः =
(क्रमशः)
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