शनिवार, 26 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१३)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बाड़ी माहैं माली निपज्यौ,*
*हाली माहै निपज्यौ खेत ।* 
*हंसहि उलटि स्याम रंग लागौ,*
*भ्रमर उलटि करी हूवौ सेत ॥*
*शशिहर उलटि राह कौं ग्रास्यौ,*
*सूर उलटि करि ग्रास्यौ केत ।* 
*सुन्दर सुगरा कौं तजि भाग्यौ,*
*निगुरा सेती बांध्यौ हेत ॥१३॥* 
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*= ह० लि० टीका =*  
बाड़ी = काया । माली = जीव । हाली = जीव । खेत = काया । हंस = जीव । श्याम रंग = राम रंग । भंवर = मन । शशिहर = मन । राहु = गुण । ग्रास्यौ = ज्ञान(पायो) । सूर = ज्ञान, दूजो पान । कत = कर्म, सुगरा = संसार । निगुरा = ब्रह्म ॥१३॥ 
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*= ह० लि० २ टीका =* 
बड़ी काया क्षेत्ररूप ता मांहिं मालीरूप क्षेत्रज्ञ जो जीव सो निपज्यो सुमिमरण साधन कर स्वरूप को प्राप्त हुवो । हाली जीव क्षेत्रज्ञरूप ताकि चेतन सत्ता करकैं खेत नाम क्षेत्ररूप शरीर सो निपज्यो नाम साधन सिद्धिकों प्राप्त हुवो । 
हंस जो जीव सो माया रंग में होय रह्यो हो, ताकूं गुरु संत उपदेश करि कैं अब उलटि कै स्याम रंग लाग्यो  -  स्याम जो अपना स्वामी अथवा घनश्याम मूर्ति श्री रामजी ताको रंग लाग्यो । भ्रमर नाम काम-कर्म-कालिमायुक्त जो मन सो सेत नाम भगवत भजन सुमरन करि ऊजल हूवो । 
संकल्प आत्मक जो मन सोई है शशिहर नाम चंद्रमा तानैं राह नाम आपकों मलीन को करता जो तामसादि गुण ताकों ग्रास्यो नाम निवृत्ति कीया तब शुद्ध हुवो । सदा प्रकाशमान सोई सूर तानैं कर्म-कामनारूप केत सो दूर निवारन कर्यो केवल ज्ञान ही ज्ञान प्रकास्शमान रह्यौ । 
सुगरा संसार जो अन्य आधीन वर्तै ताकों त्यागि करि भाग्यो नाम अत्यन्त विचार्यो अरु निगुरा नाम जाके ऊपरि कोई भी नहीं से ब्रह्म-स्वयं प्रकाश स्वाधीन तासों स्नेह बांध्यो ॥१३॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =*  
यह जो सृष्टि है सोई मानो बाडी है । ता बाड़ी माहीं चेतन परमात्मास्वरूप माली निपज्यो कहिये अज्ञान दशा के पक्ष में जीवभावकूं ग्रहण करिके जगत में अपने जन्मादिकूंमानि रह्यो । अथवा सो चेतन परमात्मा ही ज्ञानकाल में विचार द्वारा सर्वजगत में परिपूर्ण प्रतीत भयो । 
अज्ञानदशा के पक्ष में मनरूप काष्ट के हल करि शुभाशुभ कर्मरूपबीज बोवने के वास्ते प्रवृत्तिरूप खेती कूं करने वाल जो क्षेत्रज्ञ साक्षी चेतन है सोई मानो हलका खेडनेवाला हाली(कृषिकर) है । ता मांही शरीररूप(क्षेत्र) निपज्यो कहिये नानाप्रकार के अनुकूल औ प्रतिकूल जो विषय हैं सो सब मानों तामें अन्न के वृक्ष हैं तिससे जो सुख-दुःखरूप फल उत्पन्न होवै है । सोई मानों अनाज के कन हैं । ऐसा जो क्षेत्र है “मैं कर्त्ता-भोक्ता हूँ” इत्यादि भ्रम करि उत्पन्न भयो । अथवा ज्ञानदशा के पक्ष में अपनी उपाधिभूत जो मन है सोई मानों हल है तिससे ही प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप खेती होवै है । तिसका प्रकाशक जो आत्मा है सोई मानों कृषिकार है । तामें क्षेत्र की न्याई सर्वजगत का आधार जो परमेश्वर है सो अभिन्न होय के प्रतीत भयो ।
चिदाभास-रूप जो जीव है सोई मानों हंस ही है । काहेतें कि हंस पखी का श्वेत रंग होवै है । तैसे इहां जो विषय में आसक्ति है अथवा जो जगत के व्यवहार की प्रवृत्ति में उत्साह है सो यद्पि विवेक दृष्टि से त्याज्य है तथापि अविवेक दृष्टि से नीके लगे हैं । ताते सोई मानो जीवरूप हंस का श्वेत रंग है । सो उलटि के कहिये विषयन में वैराग्य औ जगत के व्यवहार की प्रवृत्ति में उपरित(हुई) जो अज्ञानी की दृष्टि में श्यामरंग है सो लागो कहिये वैराग्य और उपरतियुक्त कियो । 
मन रूप जो भ्रमर है सो उलटि करि कहिये निष्कामकर्म औ उपासना द्वारा मल-विक्षेप दोषरूप श्याम ताकूं छोडिकरि शुद्धता औ एकाग्रतारूप श्वेत हूवो । 
ज्ञान के प्रकाशरूप जो मन है सोई मानो शशिहर(चन्द्र) है । तांने अज्ञानकृत राहु कूं उलटि ग्रास्यो कहिये नाश कियो । ज्ञानरूप ही मानो सूर(सूर्य) है तिसने प्रतिदिन उलटि कहिये घटिका दो घटिका या यातें भही अधिक काल ब्रह्म का जो नियम से अभ्यास होवै है तिससे उत्तम भूमिका में स्थिति पायकरि दृष्ट दुःख की हेतु जो अज्ञानकृत विक्षेप की प्रतीती होवै है । सोई मानों केत(केतु) हैं । ताकूं ग्रास्यो कहिये दूर कियो । 
श्री सुन्दरदास जी कहैं है कि जो सगुणवस्तु है सोई इहां सुगरा है । ताकूं पूर्वोक्त ग्यानी तजिके भाग्यो कहिये दूर रह्यो । औ जो निर्गुणवस्तु है सोई मानो निगुरा है ता सेती ताने हेतु बांध्यो कहिये ऐक्यभावरूप प्रेम कियो ॥१३॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“सुन्दर माली नीपज्यौ, फल अरु फूल समेत । 
हाली के कोठा भरे, सूके बाड़ी खेत ॥२०॥
भ्रमर सु तौ उज्जल भयौ हंस भयो फिर स्याम । 
को जांनै केते भये सुन्दर उलटे काम”  ॥२१॥ 
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*= श्री दादूवाणी =*  
मोहन माली सहज समाना .... । 
काया बाड़ी माहै माली, तहाँ रास बनाया ।... 
ता माली की अकथ कहानी, कहत कही नहिं आवै ।
...पद ३७०
(क्रमशः)

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