रविवार, 10 जनवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
सहज रूप मन का भया, तब द्वै द्वै मिटी तरंग ।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

सम की अवस्था में शून्य अपने आप निष्पन्न होता है
भारत ने जितनी श्रेष्ठ दशाएं चित्त की खोजी हैं, सभी को सम से निर्मित शब्दों से इंगित किया है समाधि, संबोधि, सबुद्ध। इस सम धातु का क्या अर्थ है?

सम का अर्थ होता है जहां व्यक्ति ऐसी दशा में आ जाए, जैसे तराजू तब आता है? जब काटा बिलकुल मध्य में होता है। दोनों पलड़े समान हो जाते हैं, समतुल हो मनुष्य के मन में दुख है, सुख है, असफलता है, सफलता है, अंधेरा है, उजाला है, जीवन का मोह है, मृत्यु का भय है। ये सारे द्वंद्व जब सम हो जाते हैं, न जीवन का मोह, न मृत्यु का भय; न सफलता की आकांक्षा, न विफलता से बचाव, न सुख की खोज, न दुख से भागना—ऐसी स्थिति सम है।

सम की अवस्था में शून्य अपने आप निष्पन्न होता है। क्योंकि धन और ऋण जब बराबर हो जाते हैं, एक —दूसरे को काट देते हैं। सीधा गणित है। धन और ऋण जब बराबर हो गए, तो एक—दूसरे को काट देते हैं; बचता है शून्य। वह शून्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उस शून्य का नाम ही सम है।

उस शून्य की दशा में ले जाने वाले सब उपाय, और उस दशा में पहुंचने के बाद की सब भंगिमाएं सम शब्द से उदघोषित की गयी हैं।

सोचो। परखो। कभी क्षणभर को तुम भी इस समता में आ सकते हो। कभी क्षणभर को तुम्हारा तराजू भी थिर हो सकता है, जब न तुम इस तरफ झुके, न उस तरफ झुके।....osho

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