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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*शास्त्र वेद पुरान पढै किनि*
*पुनि ब्याकरण पढै जे कोइ ।*
*संध्या करै गहै षट कर्म हि*
*गुन अरु काल बिचारै सोइ ॥*
*रासि काम तबही बनि आवै*
*मन मैं सब तजि राखै दोइ ।*
*सुन्दरदास कहै सुनि पंडित*
*राम नाम बिन मुक्त न होई ॥३२॥*
*॥ इति विपर्यय शब्द कौ अंग ॥२२॥*
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*= ह० लि० १, २ टीका =*
शास्त्र मीमांसादि ६ । बेद ॠग्यजुरादि ४ । पुरान भागवतादि १८ । व्याकरण पाणिन्यादि ९ । इन सबन के जे कोई पढ़ै ।
संध्या नित्य नियम । षट्कर्म बर्णाश्रमां का भिन्न भिन्न कर्म है । तथा ब्राह्मणां का यजनअध्यापनादि । गुन सत्वादि गुण । कालाभूतादि । इन सबन को बिचारै नाम यथायोग्य शुभ कर्मन कों करै ।
सर्व शुभकर्म कर्यां यथायोग्य सर्व ही फल देवै हैं, परि साक्षात्कार कार्य तो तबही सिद्ध होवैगो सर्व तज अरु ररो ममो दोय अक्षय अखंड ह्रदय में धारैगो तब । रामनाम सर्व को सिद्धान्त शिरोमणि है जीवन्मुक्ति कल्याण सुख को कर्त्ता यही है, सो याही को निश्चै करि निरंतर अखंड धारणों सही ॥३२॥
राम नाम विन मुक्ति नहीं होइ । अत्र *प्रमाणम्* -
१. तपन्तु तापै : प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु वागमान् ।
यजन्तु यागै र्विवदन्तु योगै र्हरिं विना नैव मृतिं तरन्ति ॥ इति *भागवत* ॥
२. आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेव समुत्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ॥ इति *भारते* व्यासः ।
३. किं त्तात वेदागम शास्त्र विस्तैस्तीथैंरनेकैरपि किं प्रयोजनम् ।
यद्यात्मनो वाच्छसि मोक्षकारणं गोविन्द गोविन्द इदं स्फुटं रट ॥
इति *बिष्णुरहस्ये* प्रहलादवाक्यम् ।
४. अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८/१४॥
समोsहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योsस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९/२९॥
इति *भगवद्गीतायां* श्रीकृष्ण वचनम् ।
॥ इति विपर्यय अंग की टीका सम्पन्न ॥२२॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
“अब इस अंग की समाप्ति में पूर्वोक्त ज्ञान विषे जो असमर्थ होय ताकूं परमेश्वर की उपासना - रूप साधन कर्तव्य है । ऐसे दिखावते हुये अपनी(दादूजी की) सम्प्रदाय के इष्ट जो राम हैं ताके स्मरणपूर्वक गोप्य अर्थ करि शिरोमणि सिद्धान्त कूं दिखावै हैं - सांख्य, योग, न्याय, वैशैषिकमीमांसा औ वेदांत - ये जो षष्टशास्त्र हैं रु कहिये अरु ॠग, यजु, साम औ अथर्वण - ये चारि जो वेद है । ब्रह्म, पद्म, वैष्णव, शैव्, भागवत, नारदीय, मार्कडेय, आग्नेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लैंग, वाराह, स्कंध, बामन, कौर्म, मात्स्य, गारुड, औ ब्रह्माण्ड - ये जो अष्टादश पुरान हैं तिनकूं कोई पुरुष किन कहिये क्यूं न पढ़ै । पुनि पाणिनि आदिके जो नव व्याकरण हैं तिनकूं जे कोई पढै ।
प्रातः काल मध्यान्हकाल औ सायंकाल तीन समय संध्या गायत्री कूं करै । औ स्नान, जप, होम आदिक षटकर्महि गहै जो आचरै । सोइ देश, काल, कर्म आगम औ आहारादिक की सात्विकता राजसता औ तामसता म उपयोगी सत्वादि गुनन कूं अरु काल कहिये काल - करि उपलक्षित देशादिक कूं । अथवा शांत, घोर औ मूलवृत्तिरूप गुण औ कर्म में उपयोगी औ अनुपयोगी शुभाशुभ काल कूं जो बिचारै ।
यद्यपि यह पूर्वोक्त आचार भी श्रेष्ठ है औ परंपरा करि ज्ञान द्वारा मोक्ष का कारण है तथापि सो साक्षात् मोक्ष वा ज्ञान का साधन नहीं होने तें, तिस तें पूर्व कार्य होवै नहीं । औ रासी अतिशय करि श्रेष्ठ काम तबै बनि आवै कहिये सिद्ध होवै, जब मन में सब पूर्वोक्त साधन आग्रह तजि कहिये छोड़िके ‘राम’ इन दोइ अक्षरन कूं ह्रदय में राखै कहिये तदाकार होयके रहै । यह मोक्ष - साधन की प्राप्ति का निकट द्वार है ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि हे पंडित ! सर्व शास्त्र का सिद्धान्त यह है - राम नाम विनु मुक्ति न होइ । याका गोप्य अर्थ यह है - ब्रह्म औ आत्मा की एकता के जानने वाले योगी तदाकार वृत्ति करि जिस सत्य आनंद चिदात्मा विषै रमते हैं, सो चिद्रूप परब्रह्म राम कहिये है । तिस राम के नाम कहिये प्रसिद्धि अर्थ यह सो साक्षात्कार तिस बिना मुक्ति होवै नहीं । यातें राम के साक्षात्कार अर्थ कूं भजै’ ॥३२॥ इस २२ वें अंग की टीका को स्वयं सुन्दरदास जी के विशिष्ट वचन से समाप्त करते हैं -
“सुंदर सब उलटी कही, समुझै संत सुजांन ।
और न जानैं बापुरे, भरै बहुत अज्ञांन”॥
॥ इति विपर्यय शब्द के अंग २२ की टीका सम्पन्न ॥२२२॥
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