गुरुवार, 14 जनवरी 2016

= १७४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जैसे मांहि जीव रहै, तैसी आवै बास ।
मुख बोले तब जानिये, अन्तर का परकास ॥ 
=============================
साभार ~ Anand Nareliya ~

एक अंधा भिखारी राह पर बैठा है। रात है, राजा और उसके कुछ साथी राह भूल गए है। वे शिकार करने गए थे। उस गांव से गुजर रहे हैं। कोई और तो नहीं है, वह अंधा बैठा है झाड़ के नीचे;अपना एकतारा बजा रहा है। और अंधे के पास उसका एक शिष्य बैठा है। वह उससे एकतारा सीखता है, वह भी संन्यास की मंगल—वेला भिखारी है। दोनों भिखारी हैं।
राजा आया और उसने कहा : सूरदास जी! फलां —फलां गांव का रास्ता कहा से जाएगा? फिर वजीर आया और उसने कहा : अंधे! फलां—फलां गांव का रास्ता कहां से जाता है? अंधे ने दोनों को रास्ता बता दिया। पीछे से सिपाही आया; उसने एक रपट लगायी अंधे को—कि ऐ बुड्डे! रास्ता किधर से जाता है? उसने उसे भी रास्ता बता दिया।
जब वे तीनों चले गए, तो उस अंधे ने अपने शिष्य से कहा कि पहला बादशाह था, दूसरा वजीर था; तीसरा सिपाही। वह शिष्य पूछने लगा लेकिन आप कैसे पहचाने? आप तो अंधे हैं! उसने कहा. अंधे होने से क्या होता है! जिसने कहा सूरदासजी, वह बड़े पद पर होना चाहिए। उसे कोई चिंता नहीं है अपने को दिखाने की। वह प्रतिष्ठित ही है। लेकिन जो उसके पीछे आया, उसने कहा अंधे! अभी उसे कुछ प्रतिष्ठित होना है। और जो उसके पीछे आया, वह तो बिलकुल गया—बीता होना चाहिए। उसने एक धप्प भी मारा। रास्ता पूछ रहा है और एक धप्प भी लगाया! वह बिलकुल गयी—बीती हालत में होना चाहिए। वह सिपाही होगा।....ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें