गुरुवार, 14 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ६-७) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
*ग्रन्थ-वर्णन + सोरठा* 
*है यह अति गंभीर, उठति लहरि आनंद की ।*
*मिष्ट सु याकौ नीर, सकल पदारथ मध्य हैं ॥६॥*
(कवि रूपकालंकार के सहारे साधारण समुद्र से इस विशेषता बतलाते हैं -) यह ज्ञानसमुद्र विषय-निरुपण की दृष्टि से सब से अधिक गम्भीर(गहरा) है(जब कि सामान्य समुद्र सर्वत्र एक सा गहरा नहीं होता) । इसमें आनन्द की तरंगें उठती रहती हैं(साधारण समुद्र में जल की तरंगें ही उठती हैं) इसका जल(मोक्षरुपी फल अमृत के समान मीठा है(जब कि सामान्य समुद्र का जल सर्वत्र खारा ही होता है) इस ज्ञान-समुद्र में सभी कलाओं(ज्ञानकाण्ड का वर्णन करने वाले दर्शनशास्त्र के अंग प्रत्यंग - सांख्य, योग, भक्ति, वेदान्त न्याय आदि शास्त्रों) के पदार्थ(= वर्ण्य विषय या पदों के अर्थ) रूप नाना रत्न स्थान पर मिलेंगे(जब कि साधारण समुद्र में बहुत मन्थन करने पर भी १४ रत्न ही मिले थे) ॥६॥
*- इंदव -* 
*जाति जिती सब छंदनि की,* 
*बहु सीप भइ इहिं सागर माहीं ।*
*है तिन मैं मुक्ताफल अर्थ,* 
*लहैं उनकौं हित सौं अवगाहीं ॥*
*सुन्दर पैठि सकै नहिं जीवत,* 
*दै डुबकी मरिजीवहिं जांहीं ।*
*जे नर जान कहावत हैं अति,* 
*गर्व भरे तिनकी गमि नांहीं ॥७॥*
महाकवि श्रीसुन्दरदासजी अपना पूर्व कथन ही अधिक विस्तृत कर रहे हैं - साहित्यशास्त्र में बतायी गयी जितनी भी छन्दों की जातियाँ(भेद) हैं, वे सब इस 'ज्ञानसमुद्र' ग्रन्थ में सीप(शुक्ति) के समान हैं । (अर्थात् मैंने इस ग्रन्थ में सभी विषयों का निरुपण विविध छन्दों में ही किया है) । इन छन्दरूप शुक्तियों में जो अर्थरूप मोती हैं उन्हें वही जिज्ञासु प्राप्त कर सकेगा जो इस समुद्र में अपना सर्वथा लाभ समझता हुआ गहरा गोता(डुबकी) लगायेगा । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं इस ज्ञानसमुद्र में देहाभिमानी अज्ञानी नहीं पैठ सकता । इसमें तो देहाध्यास रहित जिज्ञासुरुपी गोताखोर ही जब गहरा गोता लगायेगा तो यहाँ से कुछ प्राप्त कर पायगा । जो ज्ञानाभिमानी पण्डितम्मन्य हैं उनकी इस ग्रन्थ में गति नहीं है(अर्थात् वे इस ग्रन्थ से कुछ भी लाभ नहीं उठा सकते) । अथवा जो ज्ञान का अभिमान ही रखते हैं, वस्तुतः ज्ञानी नहीं हैं; वे यदि अभिमानवश इस ज्ञानसमुद्र शास्त्र का अवगाहन(अध्ययन) न भी करें तो इसका मुझे कोई दुःख नहीं होगा ॥७॥
(क्रमशः)

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