卐 सत्यराम सा 卐
दादू बँध्या जीव है, छूटा ब्रह्म समान ।
दादू दोनों देखिये, दूजा नांही आन ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~
बुद्ध के एक तरुण भिक्षु पर, एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के नाना प्रकार के प्रलोभन दिए।
दूसरी मन की बात समझो अब यह स्त्री प्रभावित हुई है वस्तुत: इसके संन्यास के सौंदर्य से। और बनाना चाहती है इसे गृहस्थ। जैसे ही यह गृहस्थ हो जाएगा, यह सौंदर्य खतम हो जाएगा।
इसलिए अक्सर हम अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाडी मारते हैं। वह हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम वही कर लेते हैं, जिससे हमारा बनाया हुआ मंदिर गिर जाएगा। तुम्हें एक स्त्री में सौंदर्य दिखायी पड़ता है, क्योंकि वह अभी स्वतंत्र है। हवा की तरंग की तरह है, तुम्हारे बंधन में नहीं है। उसकी स्वतंत्रता में ही उसका अल्हड़पन है। फिर तुमने उसको बांधा विवाह में, कानून में, घर में लाकर बंद कर दिया। अब तुम्हारा उसमें रस कम होने लगे, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि तुम्हारे रस का एक बुनियादी कारण था—उसका अल्हड़पन, उसकी मुक्ति, उसका सौंदर्य, उसकी स्वतंत्रता में था।
जैसे तुमने आकाश में उड़ते एक पक्षी को देखा और तुम आकर्षित हो गए। फिर तुम उस पक्षी को बांधे, पकड़े, चाहे सोने के पिंजड़े में लाकर रखो, लेकिन आकाश में उड़ता हुआ पक्षी बात ही और। सोने के पिंजड़े में बैठा पक्षी बात ही और। ये दो अलग पक्षी हो गए। ये एक ही पक्षी नहीं .हैं। अब तुम्हें पिंजड़े में बंद इस पक्षी में वह रस नहीं मालूम होता, जो जब उसने पंख फैलाए थे सूरज की तरफ, तब मालूम हुआ था। तुमने अपने हाथ से हत्या कर दी।
एक गुलाब का फूल खिला। खूब सुंदर था। तुम जल्दी से तोड़ लिए। थोड़ी ही देर में तुम्हारे हाथ में कुम्हला जाएगा। थोड़ी ही देर में तुम रास्ते के किनारे फेंककर अपने मार्ग पर चले जाओगे। क्या हुआ! सुंदर था फूल, अपूर्व सुंदर था। लेकिन उसके सौंदर्य में जो जीवंतता थी, वह तुम्हारे तोड्ने में ही नष्ट हो गयी।
जो व्यक्ति फूलों को प्रेम करता है, तोड़ेगा नहीं। जो व्यक्ति किसी को प्रेम करता है —स्त्री हो या पुरुष—उस पर बंधन न डालेगा। जो किसी पक्षी को प्रेम करता है, वह पिंजड़ों में उसे बंद नहीं करेगा। लेकिन अक्सर हम यही करते हैं। आदमी ऐसा मूढ़ है, अपने आनंद को अपने ही हाथों नष्ट कर लेता है!
तुम देखना अपने जीवन में। तुम रोज—रोज इसके प्रमाण पाओगे। इसलिए मैं कहता हूं : ये छोटी—छोटी कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं। इनके भीतर मनुष्य का पूरा का पूरा मनोविज्ञान छिपा है।
यह स्त्री आकर्षित हो गयी है। दुनिया में इतने लोग हैं, एक संन्यासी पर आकर्षित होने की जरूरत क्या! कोई लोगों की कमी है? जो संसार छोड़कर चला गया है, उसे क्षमा करो, उसे जाने दो! जो अपने भीतर डूब रहा है, उसे मत खींचो बाहर।
लेकिन नहीं; जो अपने भीतर डूब रहा है, उसमें अपूर्व आकर्षण मालूम होता है। उसकी गहराई बढ़ जाती है। उसके व्यक्तित्व में एक गरिमा आ जाती है। उसमें कुछ जुड़ जाता है जो संसार से बाहर का है। उसमें पारलौकिक की थोड़ी सी छबि उतर आती है।...osho
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