बुधवार, 6 जनवरी 2016

= १५० =

卐 सत्यराम सा 卐 
दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।
अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥ 
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Anand Nareliya ~ धर्म का सार
चीन में बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा रहा। लोग आते थे, तो उनकी तरफ देखता नहीं था। पीठ ही किए रहता था। लोग पूछते भी कि बहुत भिक्षु हमने देखे, बहुत संत देखे, मगर आप हमारी तरफ पीठ क्यों किए हैं? तो बोधिधर्म कहता. जो मेरी आंखों में पड़ने के योग्य होगा, जब उसका आगमन होगा, —तब देखूंगा। अभी देखने से कुछ सार नहीं है। अभी तो दीवाल देखूं कि तुम्हें देखूं? सब बराबर है। दीवाल ही है चारों तरफ। तुम भी दीवाल हो!

नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया, जिसकी प्रतीक्षा बोधिधर्म ने की थी। बोधिधर्म को भी महाकाश्यप मिला; जैसे बुद्ध को महाकाश्यप मिला था। उस व्यक्ति ने आकर अपना एक हाथ तलवार से काटकर बोधिधर्म को भेंट किया और कहा. जल्दी से इस तरफ मुंह करो अन्यथा गरदन भी भेंट कर दूंगा! फिर क्षणभर बोधिधर्म नहीं रुका। जल्दी से घूमा। वह नौ साल जो दीवाल को देखता रहा था, वह घूमा और उसने कहा कि तो तुम आ गए! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था। क्योंकि जो सब देने को तैयार हो, गरदन देने को तैयार हो, वही मेरे संदेश को झेल सकता है।

इस व्यक्ति को बोधिधर्म ने अपना संदेश दे दिया, जो बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया था। वह क्या है संदेश? शब्द में कहने का उपाय नहीं।

यह नौ वर्ष तक दीवाल का साक्षी रहा था। बुद्ध तो थोड़ी देर फूल के साक्षी रहे थे। बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल को देखता रहा था। यह नौ वर्ष का साक्षीभाव था, जो उसने इस व्यक्ति को दे दिया।

फिर यह व्यक्ति गुरु हुआ। बोधिधर्म वापस लौट गया चीन से भारत की तरफ। भारत कभी पहुंचा नहीं। कहीं हिमालय में खो गया होगा। और खो जाने को बेहतर जगह है भी नहीं।

फिर यह व्यक्ति, जिसको बोधिधर्म दे आया था, का हुआ; और इसे भी अपने शिष्य की तलाश थी। इसके आश्रम में पांच सौ भिक्षु थे। इसने एक दिन खबर की कि अब मुझे शिष्य की तलाश है। जो भी सोचता हो कि योग्य हो गया है, वह मेरे द्वार पर आकर लिख जाए धर्म का सार चार पंक्तियों में।

जो सबसे बडा पंडित था, महापंडित था, स्वभावत: उसी ने हिम्‍मत की। उसी ने बड़े डरते —डरते हिम्मत की। क्योंकि वे जानते थे अपने गुरु को कि उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। औरों ने तो हिम्मत ही नहीं की, विचार ही नहीं किया। लेकिन एक ने हिम्मत की, जो सबसे बडा पंडित था, जिसे शास्त्र कंठस्थ थे। वह रात चोरी से गया, वह भी दिन में नहीं; रात जाकर गुरु के द्वार पर चार पंक्तियां लिख आया। उसने पंक्तियां लिखी थीं कि—
मन दर्पण की भांति है
इस पर विचारों —विकारों की धूल जम जाती है
उस विचार—विकार की धूल को पोंछ दें
यही धर्म का सार है।
दूसरे दिन सब में खबर पहुंच गयी कि बात तो कह दी है, बिलकुल ठीक कह दी। लेकिन गुरु प्रसन्न नहीं था। गुरु ने पढ़े वचन; लेकिन चुप रहा, कोई वक्तव्य न दिया। लोग सोचने लगे : यह ज्यादती है। इससे सुंदर और वचन क्या लिखा जाएगा! इसमें तो सारा सार आ गया।

यह खबर चलती थी, विवाद चलता था, भिक्षु इस पर एक —दूसरे से चर्चा करते थे। ऐसे दो भिक्षु चर्चा करते भोजनालय से निकलते थे कि आश्रम के भोजनालय में जो व्यक्ति चावल कूटने का काम करता था, वह इन दोनों की बातें सुनकर हंसने लगा।

वह बारह साल से चावल ही कूट रहा था। बारह साल पहले आया था, तब गुरु ने उससे पूछा था : तू धर्म जानना चाहता है या धर्म के संबंध में जानना चाहता है? तो उसने कहा था. संबंध में जानकर क्या करूंगा! धर्म ही जानना है। तो गुरु ने कहा था. तो फिर जा और अब चौके में चावल कूट। जब —जरूरत होगी, मैं आ जाऊंगा। अब तू मेरे पास मत आना।

तो बारह साल से यह आदमी चुपचाप चावल कूट रहा था। बुद्ध थोड़ी देर चुप रहे थे फूल को हाथ में लेकर। बोधिधर्म नौ साल दीवाल के सामने बैठा रहा था। और यह व्यक्ति! इसका नाम था हुईको; यह बारह साल से चुपचाप चावल कूट रहा था!

लोग जानते नहीं थे कि इसका कोई अस्तित्व है। सुबह से उठता, सांझ तक चावल कूटता रहता। रात गिर पड़ता। सुबह फिर उठकर चावल कूटता। बारह साल तक सिर्फ चावल कूटा। न अखबार पढ़ा। न किसी से बात की। न किताब पढ़ी। न कभी किसी से बोला। बारह साल में इसका सब शांत हो गया था। यह साक्षीभाव को उपलब्ध हो गया।

यह बारह साल मे पहला मौका था, जब किसी ने इसको हंसते देखा। वे दोनों भिक्षु चौंके। यह ऐसा ही था, जैसे कि तुम पत्थर पड़ा हो और एकदम उसको चलते हुए देखो। बारह साल! किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह हंसता भी है, कि इसमें प्राय भी हैं, कि आत्मा भी है! इसका कोई विचार ही नहीं करता था। बड़े—बड़े सवाल थे विचारने को। कोन इसकी फिकर करता था!

इसको जोर से हंसते देखकर वे दोनों ठिठके। उन्होंने कहा तुम क्यों हंसे? और बारह साल से तुम्हें किसी ने हंसते नहीं देखा! बात क्या हुई आज!

जैसे महाकाश्यप हंसा था, ऐसे हुईनेंग हंसा। और हुईको ने कहा कि मैं इसलिए हंसा कि ये पंक्तियां जो लिखी हैं, जिसने भी लिखी हों, महामूढ़ है।

अब तो और भी चौंकाने वाली बात हो गयी। उन्होंने कहा कि चावल कूटते तेरी जिंदगी बीत गयी और तू समझता है, तू ज्ञानी है! और हमारे आश्रम के सबसे बडे महापंडित को महामूढ़ कहता है! तो तू इनसे बेहतर पंक्तियां लिख सकता है? उसने कहा. लिख तो सकता हूं लेकिन मैं लिखना भूल गया हूं। अगर तुम लिख दो, तो मैं बोल दूंगा। चलो अभी।

वह गया और उसने जाकर कहा कि पोंछ दो ये पंक्तियां दूसरे की लिखी हुई। मैं जो कहता हूं लिखो।
पहली पंक्तिया थीं कि—
मन दर्पण की भांति है
इस पर विचार—विकार की धूल जम जाती है
उसे पोंछ दो
यही धर्म का राज है।
हुईनेंग ने कहा.
कैसा दर्पण! कहां का दर्पण!
मन कोई दर्पण नहीं है
धूल जमेगी कहां?
ऐसा जिसने जान लिया, उसने धर्म को जाना।
मन का कोई दर्पण ही नहीं है, धूल जमेगी कहा? जिसने ऐसा जान लिया, उसने धर्म को जाना।

इस व्यक्ति को मिली संपदा। जो संपदा बुद्ध ने महाकाश्यप को दी थी, वह संपदा के गुरु ने हुईको को दे दी।

ऐसी बड़ी अनूठी घटनाओं से झेन की परंपरा चलती रही है। लेकिन सदा संवाद शून्य का है, साक्षी का है।....osho

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