卐 सत्यराम सा 卐
साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि की प्यास ।
दादू संगति साधु की, अविगत पुरवै आस ॥
साधु मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनन्द मूर ।
दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~
प्रेम वस्तुत: परमात्मा के लिए है
मनुष्य वस्तुत: शाश्वत की खोज में ही प्रेम मैं पड़ता है। तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ते, तो ऊपर से तो ऐसा ही दिखता है कि इस स्त्री के प्रेम में पड़ रहे, इस पुरुष के प्रेम में पड़ रहे, लेकिन अगर ठीक विश्लेषण करो अपनी मनोदशा का, तो तुम्हें इस स्त्री में कुछ शाश्वत की झलक मिली—इसलिए। इस पुरुष में तुम्हें सनातन का कोई स्वर सुनायी पड़ा—इसलिए। इस स्त्री की आंखों में तुम्हें कुछ बात दिखायी पड़ी, जो आंखों के पार की है। इसके सौंदर्य में भनक मिली तुम्हें परमात्मा की।
तो संसारी में तो बहुत धीमी ध्वनि होती है परमात्मा की, हजार पर्तों में दबी होती है। संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जिसने पर्तें उघाड़नी शुरू कर दीं और जिसका संगीत धीरे — धीरे प्रगाढ़ होने लगा। उसके पास जाओगे, तो उसके अंतरतम के संगीत में मोहित हो ही जाओगे।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि मनुष्य का प्रेम वस्तुत: परमात्मा के लिए है। जब तुम किसी के देह में भी उलझ जाते हो, तब भी तुम परमात्मा की ही खोज में उलझते हो। इसलिए हर बार देह में उलझकर पछताते हो। क्योंकि जो सोचा था? वह तो मिलता नहीं। और जो मिलता है, वह सोचा नहीं था। सोचा तो था कि विराट मिलेगा, कम से कम विराट का द्वार मिलेगा। लेकिन जो मिलता है, वह दीवार है। जो मिलता है, वह क्षणभंगुर है।
जब तुम फूल के सौंदर्य में अवाक खडे रह जाते हो, तब यह क्षणभंगुर फूल के सौंदर्य में तुम अवाक नहीं हुए हो। इस क्षणभंगुर में कोई किरण दिखायी पड़ी है, जो क्षणभंगुर नहीं है। इस क्षणभंगुर पर कोई आभा उतरी है, जो अनंत है, शाश्वत है। यह क्षणभंगुर उस शाश्वत आभा से दीप्त हो उठा है, इसलिए क्षणभंगुर में भी आकर्षण है। आभा उड़ जाएगी। सांझ फूल गिर जाएगा झरकर धूल में। फिर तुम इसे प्रेम न करोगे।
जब युवा होते हैं लोग, तब परमात्मा की झलक बडी साफ होती है। फिर जैसे —जैसे वृद्ध होने लगते हैं, देह जड़ होने लगती है, देह मरने के करीब आने लगती है, वैसे —वैसे परमात्मा की झलक कम होने लगती है। इसलिए यौवन का आकर्षण है।
संन्यासी का आकर्षण और भी ज्यादा है। क्योंकि संन्यासी सदा युवा है। इसलिए तुमने देखा. हमने बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम की कोई वार्धक्य, वृद्धावस्था की मूर्तियां नहीं बनायीं। उनका कोई चित्र नहीं है हमारे पास।
के तो वे जरूर हुए थे। नियम किसी की चिंता नहीं करता। राम भी के हुए; कृष्ण भी बूढ़े हुए; बुद्ध और महावीर भी के हुए; लेकिन हमने उनके बुढ़ापे के चित्र नहीं बनाए। क्योंकि हमने उनमें पाया कि क्षणभंगुर गौण था, शाश्वत प्रधान था। हमने उनमें एक ऐसा यौवन देखा, जो कभी कुम्हलाता नहीं। हमने उनकी देह की चिंता नहीं की, क्योंकि दीए की कोन फिक्र करता है जब रोशनी उतर आए! हमने उनकी भीतर की रोशनी की फिकर की।
साधारणजन के पास तो रोशनी नहीं है, दीया ही सब कुछ है। इसे तुम खयाल करना। इस तथ्य के तुम करीब कई बार आओगे।
संन्यासी में जो तुम्हें आकर्षण मालूम होता है, उसके प्रति झुक जाने का जो भाव होता है, उसके प्रेम में पग जाने की जो आकांक्षा होती है, वह इसीलिए है।
क्षुद्र कारण चाहे दिखायी पड़ते हों, लेकिन हर क्षुद्रता के भीतर विराट छिपा है। अगर कण—कण में परमात्मा है, तो क्षुद्रता में भी विराट है।...osho
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