गुरुवार, 7 जनवरी 2016

= १५४ =

卐 सत्यराम सा 卐 
दादू नेड़ा परम पद, साधु संगति मांहि ।
दादू सहजैं पाइये, कबहुँ निष्फल नांहि ॥ 
दादू नेड़ा परम पद, कर साधु का संग ।
दादू सहजैं पाइये, तन मन लागै रंग ॥ 
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साभार ~ Sri Sumeet ~

दो बच्चे थे – ‘शाश्वत’ और ‘यथार्थ’... दोनों बहुत अच्छे मित्र थे. एक दूसरे के बिना नहीं रह पाते थे. साथ में खाते, स्कूल जाते, खेलते... एक दिन यथार्थ बीमार पड़ गया. उसे तेज बुखार रहता, दर्द रहता, भूख नहीं लगती थी, कमजोरी हो गयी थी, उल्टी भी हो जाती थी... अब वो स्कूल नहीं जा पाता था, खेल नहीं पाता था, बिस्तर पर ही रहता था.. पता चला उसे ‘typhoid’ था.
शाश्वत को बहुत बुरा लग रहा था. उसे लगा कि मैं भी इसके साथ बीमार पड़ जाता तो अच्छा होता. वो भी खाना नहीं खा रहा था कि कमज़ोर हो जाए, बिस्तर पर लेता रहता, खेलता नहीं, उल्टी करने की कोशिश करता... पर शाश्वत उस वेदना को नहीं समझ पा रहा था जिसे यथार्थ झेल रहा था... क्योंकि शाश्वत को typhoid नहीं था..
पता है सुमीत ये सब क्यों बता रहा है ? क्योंकि सुमीत को एक बात समझानी है.. वो ये है कि जब हम किसी ‘भक्त’ को देखते हैं तो उसमें कुछ लक्षण नज़र आते हैं... कि वो किस तरह रहता है, क्या पहनता है, किस तरह प्रभु को रिझाता है आदि आदि.. अब हमको वो ‘भक्त’ अच्छा लग गया तो हम भी वो सब करने लगते हैं जो वो कर रहा है.. अच्छी बात है क्योंकि ‘भक्त’ को follow कर रहे हैं..
पर वो आनन्द नहीं मिल पा रहा जो उस भक्त को मिल रहा.. हमें तो ये श्रम जैसा लग रहा है.. ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम पूरी तरह से उस भक्त को follow नहीं कर पा रहे हैं.. भक्त जो मुख्य रूप से कर रहा है वो है ‘भक्ति’.. ‘भक्ति’ मतलब मन और बुद्धि को भगवान में लगाना.. भक्ति के कारण उसमें वो लक्षण हैं, जो सहज हैं.. उन लक्षणों के कारण उसमें भक्ति नहीं है..
तो मुख्य बात ये है कि हम ‘लक्षण’ को नहीं, ‘भक्ति’ को लाएं.. प्रभु में मन को लगाएं, फिर जो हमारे द्वारा होगा वो सहज होगा उसमें कृतिमता नहीं होगी- श्रम महसूस नहीं होगा..
दूसरी बात ये है कि अगर शाश्वत यथार्थ से संक्रमित हो गया होता तो ज़रूर बीमार पड़ जाता.. तो सुमीत कहना चाहता है कि अगर भक्तों को follow करने की बजाय उनका "संग” कर लें तो ज़रूर लाभ हो जायेगा.. थोड़ी सी सूक्ष्म बात है...
~ डॉ. सुमीत

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