🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पानी जरै पुकारै निश दिन*
*ताकौं अग्नि बुझावै आइ ।*
*हूं शीतल तूं तप्त भयौ क्यौं*
*बारंबार कहै समुझाइ ।*
*मेरी लपट तोहि जौ लागै तौ*
*तूं भी शीतल ह्वै जाइ ।*
*कबहूं जरनि फेरि नहिं उपजै*
*सुंदर सुख मैं रहे समाइ ॥२६॥*
.
*= ह० लि० १, २ टीका =*
पानी नाम प्रेम सो अंतःकरण में अतिगति प्रकासै उदय होय प्रेम को जो अतिगति होणों वाही को नाम विरह था विरह की तरली में रात - दिन अखंड पुकारै नाम आतुर होयकरि, तब वा प्रेमरूपी पाणी के बेग कों अग्नि बुझावै जो वा प्रेम तरली में ज्ञानरूपी अग्नि प्रगट होय नाम स्वरूप प्राप्त करिकै वा विरह अग्नि को निवारै । .
वो ज्ञान प्रेम सों कहै - हूंतो शीतल अरु तू तपत क्यूं भयो, प्रेम तो सदा सुखरूप है तथापि लगनि में तपत रहै है तातैं बारंबार ज्ञान प्रेम कों समझावै सो कहै है । मेरी लपट तोहि लागै नाम जो ज्ञान उदय होय तो प्रेम भी शांतिरूप होय जाय, आदि में प्रेम अरु प्रेम तैं ज्ञान, ज्ञान के उदय से सर्व शांत शीतल होय जाय । फेर प्राप्ति के अनंतर जन्म - मरन - संसार सम्बन्धी कोई प्रकार की जरनि नाम ताप उपजै नहीं सदा ब्रह्मानन्द सुख में समाय रहै ॥२६॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
अंतःकरण जो है सो स्वभाव तें ही स्वच्छ है, यातें ताकूं यहाँ पानी कह्या है । सो अंतःकरण संसार के त्रिविध ताप तें जरै है, तातें निशदिन कहिये निरंतर “मैं दुःखी, कंगाल, संसारजीव हूँ” ऐसे पुकारै है । अर्थात् अंतर में निश्चय करि जहँ तहाँ कथन करै है । ताकूं कहिये तपायमान अंतःकरण जल कूं ज्ञानरूप अग्नि बुझावै आइ, कहिये तिन त्रिविध तापन कूं बांध करिके शांत करै है ।
औ सो ज्ञानरूप अग्नि पूर्वोक्त अंतःकरण जल कूं बारंबार समुझाइ के कहै कि मेरी उत्पत्ति तुझसेन हुई है, सो मैं तो शीतल शांत हूं, तूं क्यौ तप्त भयौ है ? भाव यह है - प्रथम जब मंद ज्ञान होवै है तब विचार उत्पन्न होवै है, सो ज्ञान तिस बिचार करि बहिर्मुखन कूं बोध करै है ।
यह जो संसार है सो मिथ्या है, औ ता में जो तीन ताप हैं सो भी मिथ्या हैं । औ सर्वत्र परिपूर्ण जो ब्रह्म है सो सत्य है, सोई मेरा रूप होने तें मेरे विषै संसार औ ताके तीन ताप जेवरी में सर्प, शुक्ति में रजत औ मरुस्थल में जल की न्यांई मिथ्या प्रतीत होवै है । ऐसी संशय विपरीत भावना - रहित मेरी दृढ़ता - रूप लपट, श्रवण - मनन निदिध्यासनादि करि जौ तोहि लागै तौं तू भी(अंतःकरण भी) पूर्वोक्त त्रिबिधतापजन्य बिक्षेप को नाश करि शीतल(शांत व्है जाइ ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि एक बेर जो ज्ञानाग्नि करि अन्तःकरण जलकी तपत निवृत्त भई कि फेरि सो जरनी(तपत) कबहूं नहिं उपजै, अर्थात् ज्ञान हुवे पीछे अपने निजस्वरूप आत्मा से विमुख होवै नहीं । काहेतें कि अन्तःकरण ब्रह्मसुख में समाइ रहै है ॥२६॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
पानी फिरै पुकारतौ, उपजी जरनि अपार ।
पावक आयौ पूछने, सुंदर बाक़ी सार ॥३७॥
जौ तूं मेरी सीख लै, तौ तूं शीतल होइ ।
फिरि मोही सौं मिलि रहै, सुंदर दुक्ख न कोई ॥३८॥
(क्रमशः)
*ताकौं अग्नि बुझावै आइ ।*
*हूं शीतल तूं तप्त भयौ क्यौं*
*बारंबार कहै समुझाइ ।*
*मेरी लपट तोहि जौ लागै तौ*
*तूं भी शीतल ह्वै जाइ ।*
*कबहूं जरनि फेरि नहिं उपजै*
*सुंदर सुख मैं रहे समाइ ॥२६॥*
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*= ह० लि० १, २ टीका =*
पानी नाम प्रेम सो अंतःकरण में अतिगति प्रकासै उदय होय प्रेम को जो अतिगति होणों वाही को नाम विरह था विरह की तरली में रात - दिन अखंड पुकारै नाम आतुर होयकरि, तब वा प्रेमरूपी पाणी के बेग कों अग्नि बुझावै जो वा प्रेम तरली में ज्ञानरूपी अग्नि प्रगट होय नाम स्वरूप प्राप्त करिकै वा विरह अग्नि को निवारै । .
वो ज्ञान प्रेम सों कहै - हूंतो शीतल अरु तू तपत क्यूं भयो, प्रेम तो सदा सुखरूप है तथापि लगनि में तपत रहै है तातैं बारंबार ज्ञान प्रेम कों समझावै सो कहै है । मेरी लपट तोहि लागै नाम जो ज्ञान उदय होय तो प्रेम भी शांतिरूप होय जाय, आदि में प्रेम अरु प्रेम तैं ज्ञान, ज्ञान के उदय से सर्व शांत शीतल होय जाय । फेर प्राप्ति के अनंतर जन्म - मरन - संसार सम्बन्धी कोई प्रकार की जरनि नाम ताप उपजै नहीं सदा ब्रह्मानन्द सुख में समाय रहै ॥२६॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
अंतःकरण जो है सो स्वभाव तें ही स्वच्छ है, यातें ताकूं यहाँ पानी कह्या है । सो अंतःकरण संसार के त्रिविध ताप तें जरै है, तातें निशदिन कहिये निरंतर “मैं दुःखी, कंगाल, संसारजीव हूँ” ऐसे पुकारै है । अर्थात् अंतर में निश्चय करि जहँ तहाँ कथन करै है । ताकूं कहिये तपायमान अंतःकरण जल कूं ज्ञानरूप अग्नि बुझावै आइ, कहिये तिन त्रिविध तापन कूं बांध करिके शांत करै है ।
औ सो ज्ञानरूप अग्नि पूर्वोक्त अंतःकरण जल कूं बारंबार समुझाइ के कहै कि मेरी उत्पत्ति तुझसेन हुई है, सो मैं तो शीतल शांत हूं, तूं क्यौ तप्त भयौ है ? भाव यह है - प्रथम जब मंद ज्ञान होवै है तब विचार उत्पन्न होवै है, सो ज्ञान तिस बिचार करि बहिर्मुखन कूं बोध करै है ।
यह जो संसार है सो मिथ्या है, औ ता में जो तीन ताप हैं सो भी मिथ्या हैं । औ सर्वत्र परिपूर्ण जो ब्रह्म है सो सत्य है, सोई मेरा रूप होने तें मेरे विषै संसार औ ताके तीन ताप जेवरी में सर्प, शुक्ति में रजत औ मरुस्थल में जल की न्यांई मिथ्या प्रतीत होवै है । ऐसी संशय विपरीत भावना - रहित मेरी दृढ़ता - रूप लपट, श्रवण - मनन निदिध्यासनादि करि जौ तोहि लागै तौं तू भी(अंतःकरण भी) पूर्वोक्त त्रिबिधतापजन्य बिक्षेप को नाश करि शीतल(शांत व्है जाइ ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि एक बेर जो ज्ञानाग्नि करि अन्तःकरण जलकी तपत निवृत्त भई कि फेरि सो जरनी(तपत) कबहूं नहिं उपजै, अर्थात् ज्ञान हुवे पीछे अपने निजस्वरूप आत्मा से विमुख होवै नहीं । काहेतें कि अन्तःकरण ब्रह्मसुख में समाइ रहै है ॥२६॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
पानी फिरै पुकारतौ, उपजी जरनि अपार ।
पावक आयौ पूछने, सुंदर बाक़ी सार ॥३७॥
जौ तूं मेरी सीख लै, तौ तूं शीतल होइ ।
फिरि मोही सौं मिलि रहै, सुंदर दुक्ख न कोई ॥३८॥
(क्रमशः)
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