मंगलवार, 5 जनवरी 2016

= १४९ =

卐 सत्यराम सा 卐 
खेल खेल खेल्या नहीं, सन्मुख सिरजनहार ।
देख देख देख्या नहीं, दादू सेवक सार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

एक गरीब आदमी सुबह उठा। उसने अपने मकान के पीछे पोखरे में कमल का बे—मौसम फूल खिला देखा। ऐसा कभी नहीं देखा था उसने। यह समय न था फूल खिलने का। इस समय फूल कभी खिलता ही नहीं था कमल का।

उसने फूल तोड़ा और सोचा कि कोन इसके दाम दे सकेगा! सम्राट ही दे सकता है दाम। और तो कोई पहचानेगा क्या! बे—मौसम का हो कि मौसम का हो, फूल फूल है। सम्राट तक कैसे पहुंच पाएगा!

ऐसा सोचता वह राजमहल की तरफ जाता था, तब उसे राह पर वजीर का रथ आता हुआ मिला। वजीर ने उसके हाथ में बे —मौसम का फूल देखा। रथ रोका। और कहा. कितना लेगा इसका?

उस गरीब आदमी की हिम्मत कितनी, उसने कहा कि सौ रुपए मिल जाएं। वजीर ने कहा कि हजार का, फूल मुझे दे। जब वजीर ने कहा हजार रुपए दूंगा, फूल मुझे दे, तब वह गरीब आदमी थोडा चौंका। उसने सोचा. मामला इतने सस्ते में बेच देने जैसा नहीं लगता। और यह वजीर ही है। काश! सम्राट से मिलना हो जाए, तो पता नहीं कितना मिले! उसने कहा कि नहीं, नहीं बेचूंगा। क्षमा करें। माफ करें। बेचूंगा ही नहीं। दस हजार रुपए देने को वजीर राजी था। लेकिन उसने कहा — नहीं, अब बेचना ही नहीं है मुझे। जैसे—जैसे रुपए बढ़ाता गया वजीर, वैसे —वैसे उसने कहा मुझे बेचना नहीं है।

वजीर जा रहा था बुद्ध के दर्शन को। उसने सोचा, बुद्ध के चरणों में बे —मौसम का फूल! चाहे कितने में ही मिल जाए, ले लेने जैसा है। बुद्ध के चरणों में रखने जैसी चीज है। लेकिन उस गरीब आदमी ने नहीं बेचा। उस आदमी का नाम था सुदास। वह एक चमार था।

जैसे ही वजीर का रथ गया कि राजा का रथ आया। तब तो वह बड़ा प्रसन्न हो गया। सोचने लगा. आज ये सब कहा जा रहे हैं सुबह—सुबह! राजा ने भी फूल देखा, रथ रुकवाया। बोले इसके कितने दाम लेगा? जितना मांगेगा, उससे दस गुना देंगे। अब तो सुदास बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जितना मांगे, उससे दस गुना मिल सकता है! दस हजार माये, तो लाख मिल सकता है। दस लाख मांगे, तो करोड़ मिल सकता है!

उसने कहा महाराज! मैं गरीब आदमी। बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं! एक प्रार्थना है, इतना दाम देकर आप इस फूल का करोगे क्या! वजीर भी बहुत दाम दे रहा था। मेरी तो बुद्धि चकरा गयी। मैं तो सोचकर निकला था कि कोई पांच रुपए भी दे दे, तो बहुत। बड़ी हिम्मत करके मैंने सौ मांगे थे, जानते हुए कि वजीर नाराज होगा और गुस्सा करेगा। लेकिन वह हजार देने को तैयार था। फिर दस हजार देने को तैयार था। अब आप हैं कि आपने मुझे और उलझन में डाल दिया। आप कहते हैं, जितना मांगेगा, उससे दस गुना मिलेगा, फूल मुझे दे दे। और फिर सुबह—सुबह आप सब जा कहां रहे हैं आज?

उस सम्राट ने कहा : तुझे पता नहीं! भगवान बुद्ध का आगमन हुआ है। शायद उनके आने से ही बे —मौसम का फूल खिला है। शायद उनकी मौजूदगी का ही परिणाम है, प्रसाद है। उन्हीं के दर्शन को जा रहा हूं। और यह फूल किसी भी कीमत पर मुझे चाहिए। बहुत लोगों ने कमल के फूल बुद्ध के चरणों में चढ़ाए होंगे, लेकिन बे —मौसम…! यह बात ही विशिष्ट है। यह मेरे ही हाथ से होनी चाहिए। तू मांग ले, जो तुझे मांगना है।

लेकिन तुम जानते हो, सुदास को क्या हुआ! सुदास ने कहा प्रभु! फिर मुझे क्षमा कर दें। फिर मैं ही उनके चरणों में यह फूल चढ़ाऊंगा।

अभी तक सुदास परेशान था, अब सम्राट परेशान हो गए। दस गुना देने की तैयारी है और यह गरीब आदमी क्या कह रहा है!

सुदास ने कहा कि क्षमा करें मुझे। मैं गरीब आदमी हूं। बेचने चला था। मुझे पता ही नहीं था कि भगवान का आगमन हुआ है। धन्यवाद आपका! लेकिन अब बेच न सकूंगा। जब आप इतना दाम देकर चरणों में चढ़ाने जा रहे हैं, तो चरणों में चढ़ाने में जरूर ज्यादा रस होगा, ज्यादा आनंद होगा। मैं ही चढ़ा लूंगा। गरीब तो हूं ही, तो गरीब तो रहा ही आऊंगा। क्या फर्क पड़ता है! इतने दिन गरीबी में गुजार दिए, आगे भी गुजार दूंगा। मगर फूल सुदास ही चढ़ाका।

ऐसे उस दिन बुद्ध जब प्रवचन को आते थे, तो मार्ग पर सुदास ने उनके चरणों में फूल रख दिया था। वही फूल महाकाश्यप को दिया था।

वह फूल भी अदभुत था। सुदास का बड़ा दान था, बड़ी कुरबानी थी; बड़ा त्याग था। फूल साधारण नहीं था। एक तो बे—मौसम खिला था। फिर एक गरीब आदमी ने सम्राट को धुतकारा था। और एक गरीब आदमी ने कह दिया था : अब फूल नहीं बिकेगा। फूल अनूठा था। बुद्ध उसी फूल को लेकर आकर प्रवचन—सभा में बैठ गए। और उस फूल को देखने लगे।

मैंने कहा. चित्रकार एक ढंग से देखेगा; वैज्ञानिक और ढंग से; कवि और ढंग से; माली और ढंग से। बुद्ध ने कैसे देखा? बुद्ध का ढंग सबसे भिन्न होगा, सबसे अनूठा और सबसे पार।

जब बुद्ध उस फूल को देखते रहे, तो सिर्फ साक्षी मात्र थे। कोई विचार भी भीतर नहीं था। फूल के संबंध में कोई धारणा भी नहीं थी। फूल सुंदर है, असुंदर है; ऐसा है, वैसा है—ऐसी कोई तरंग नहीं उठ रही थी। बुद्ध निस्तरंग उस फूल को लिए बैठे थे। फूल था, बुद्ध थे। दोनों मौजूद थे। दोनों पूरी तरह मौजूद थे। दोनों की मौजूदगी का मिलन हो रहा था। लेकिन कहीं कोई शब्द, कहीं कोई विचार, कहीं कोई प्रत्यय, कहीं कोई तरंग नहीं थी।

उस साक्षीभाव में ही बुद्ध का संदेश था। वही महाकाश्यप ने पकड़ा। महाकाश्यप को पूरा सूत्र मिल गया। झेन संप्रदाय की बुनियाद पड़ी। क्या था सूत्र? साक्षी हो जाओ। ऐसे चुप हो जाओ कि तुम्हारे भीतर कोई विचार न उठे। जब तुम कुछ देखो, तो निर्विचार देखो। चैतन्य तो हो, लेकिन विचार न हो। दर्पण बन जाओ।

अगर दर्पण बन जाओ, तो जो है, वही झलके। जो है, वही झलके, तो सत्य मिल गया। जब तक तुम विचार करोगे, तब तक झलक विकृत होती रहती है, कुछ का कुछ दिखायी पड़ता है। तुम्हारे विचार रंग जाते हैं। तुम सोचकर ही पहले से बैठे हो ऐसा है, वैसा है। तो जो है, वही नहीं दिखायी पड़ता है। तुम्हारी आंख पहले ही धुएं से भरी है। तुम्हारे दर्पण पर पहले से ही धूल जमी है।

उस सुबह संदेश क्या था बुद्ध का? दर्पण हो जाओ। वह फूल तो प्रतीक ही था। उस फूल से भी बड़ी बात जो बुद्ध कह रहे थे, वह थी साक्षीभाव। वे कह रहे थे ऐसे देखो—जगत को ऐसे देखो —जैसे मैं इस फूल को देख रहा हूं। सिर्फ शुद्ध दृष्टि हो। इसी शुद्ध दृष्टि को बुद्ध ने सम्यक दृष्टि कहा है—ठीक दृष्टि।....osho

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