रविवार, 10 जनवरी 2016

= विन्दु (१)५९ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५९ =*
*= दादूजी का सीकरी से प्रस्थान =*
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उसके पश्चात् बीरबल हाथ जोड़े हुये बादशाह की ओर संकेत करते हुये बोला - स्वामिन् ! सरकार की कृपा से हम सब लोगों को आपका दर्शन और अमूल्य सत्संग प्राप्त हुआ । आपके सत्संग में हम लोगों को परम शांति का अनुभव होने लगता था किंतु आज हम उससे वंचित हो जायेंगे ।
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आप तो जंगमतीर्थ हैं, अन्य स्थानों के लोगों को पवित्र करने के लिये पधारेंगे ही । आपका कार्य तो लोक कल्याण ही है किंतु आप से हमारी इतनी प्रार्थना अवश्य है, आपके उपदेशानुसार परमेश्वर की भक्ति हम सब में बनी रहनी चाहिये ।
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*= सीकरी से प्रस्थान के समय सबको भक्ति का उपदेश =*
तब दादूजी ने कहा सबको कहा - सज्जनों ! राम के भक्त एक राम को सुखस्वरूप जानते हैं और सुख की इच्छा सब ही करते हैं । अतः आप भी परमसुख की इच्छा से निरंतर भक्ति कर सकते हो । फिर यह पद कहा -
"राम सुख सेवक जाने रे, दुजा दुखकर माने रे ॥टेक॥
और अग्नि की झाला१ रे फंद रोपे हैं जम जाला रे ।
समकाल कठिन शर पेखेरे, यह सिंह रूप सब देखे रे ॥१॥
विष सागर लहर तरंगा, यहु ऐसा कूप भुवंगा२ ।
भयभीत भयानक भारी, रिपु करवत मीच विचारी ॥२॥
यहु ऐसा रूप छलावा३, ठग फाँसी हारा आवा ।
सब ऐसा देख विचारे, ये प्राण घात बट-पारे४॥३॥
ऐसा जन सेवक सोई, मन और न भावे कोई ।
हरि प्रेम मगन रँग राता, दादू राम रमै रस माता ॥४॥
भक्त राम को ही सुखस्वरूप समझते हैं, राम से भिन्न को दुःख रूप मानते हैं । राम से भिन्न जो कुछ भी हैं, अग्नि की ज्वाला१ के सामान चिन्ता से जलाने वाले ही हैं व माया ने यह यम-जाल बिछाकर जीवों को फँसाने के लिये फंदा रोपा है ।
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राम से भिन्न सबको काल के कठिन बाण के समान व सिंह स्वरूप देखे । जो मन में विषयों की तरंग उठती है, वह विष-समुद्र की लहर के समान है, जैसे सर्पों२ से परिपूर्ण कूप भयंकर होता है, ऐसा ही अति भयानक और भयभीत करने वाला यह संसार है । इसे करवत से चीर के मारने वाले शत्रु के समान समझना चाहिये ।
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यह ठग तथा गले में पाश डालने वाला है किन्तु ऐसे छलिया३ के रूप में सामने आता है कि अज्ञानी प्राणी इसे हितकर मान लेते हैं, फिर भी साधकजन भगवान् से भिन्न सब को विचारपूर्वक ऐसा देखते हैं कि - ये सवार्थी प्राणी मार्ग में लूट४ कर मारने वाले घातक हैं । जो कोई जन ऐसा निस्पृह भक्त होता है, उसके मन को भगवान् से बिना कोई भी प्रिय नहीं लगता ।
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वह तो हरि में ही अनुरक्त रहकर हरि-प्रेम में निमग्न रहता है और प्रेम-रस से मस्त हुआ राम के साथ ही रमण करता है । सज्जनो ! इस प्रकार आप लोग भी विचार रखोगे तो आप लोगों में भी परमेश्वर की भक्ति बनी रहेगी । अब हम जाना चाहते हैं, आप सबका कल्याण हो । ऐसा कहकर दादूजी महाराज आसन से उठ खड़े हुये तब बादशाह अकबर आदि सभी उठ खड़े हुये ।
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फिर अकबर ने चरण स्पर्श करके प्रणाम किया और कहा -
दादू नूर अलाह हैं, दादू नूर खुदाह ।
दादू मेरे पीर हैं, कहै अकबर शाह ।
फिर बोला - स्वामिन् ! गलतियों को क्षमा करना, आप तो क्षमासार ही हैं अर्थात् क्षमा को ही सार मानने वाले संत हैं फिर सबने प्रणाम करके मार्ग दे दिया । दादूजी शिष्यों के सहित आगरे की ओर चल दिये । उस समय सबने 'सत्यराम' बोलकर 'स्वामी दादूदयालुजी की जय हो' इस ध्वनि से आकाश को भर दिया ।
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फिर बादशाह अकबर आदि तो लौट गये किन्तु आमेर नरेश अपने दल के सहित एक कोस तक पहुँचाने आये । फिर स्वामीजी ने कहा - अब तुम लौट जाओ बहुत दूर आ गये हो । उस बिछुड़ने के समय आमेर नरेश भगवतदास प्रेम से अधीर हो गये किन्तु दादूजी महाराज ने आश्वासन दिया तब धैर्य धारण करके दादूजी के चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम कर राजा लौटे । स्वामी दादूजी शिष्यों सहित मार्ग में आगे बढ़े ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी प्रस्थान महोत्सव निरूपण विन्दु ५९ समापतः ।
(क्रमशः)


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