शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२९)

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*एक अहेरी वन मैं आयौ*
*खेलन लागौ भली सिकार ।*
*कर मैं धनुष कमरि मैं तरकस*
*सावज घेरे बारंबार ॥* 
*मार्यौ सिंह व्याघ्र पुनि मार्यौ*
*मारी बहुरि मृगनि की डार ।* 
*अैसें सकल मारि घर ल्यायौ*
*सुन्दर राजहिं कियौ जुहार ॥२९॥*
*= ह०लि० १,२ टीका =* 
अहेरी नाम संत सो संसाररूपी वन में आयो प्रगट हुवो सो वन में भली जो श्रेष्ठ शिकार खेलन लागौ सोई कहैं । 
कर नाम अंतःकरण तामें धनुष नाम ध्यान, कमर नाम आपकी कठिनता संजमता अति सूरवीरप्राणी तामें तरकस नाम घणी तर्क - वितर्क सों धारण कियो जो आपको निश्चो दृढभाव तामैं नाम - रटणा आदि बाँण परिपूर्ण हैं तिना करि सावज नाम शिकार खेलण जोग्य जो पशु तिनरुपी सर्व विकार तिनां को घेरन लाग्यो अर्थात् बाह्यवृत्ति मेटि सबको वश्य करने लाग्या । 
तिन में मुख्य सावज सिंह व्याघ्र नाम क्रोध - काम आदिक मार्या नाम जीति बस कीया और वह मृगन की डार नम सर्व इन्द्रियां का समूह सो मार्यो नाम इन्द्रियाँ की वृत्ति जीती । 
ऐसे सर्व कों मारिके नाम स्वबसि करिके घर नाम हदौ ल्यायो नाम सर्ववृत्ति अंतर्निष्ट करी । या प्रकार की शिकार खेलि सर्व कार्य सिद्ध करि आया तब राजा रामजी तिनको जुहार कियो नाम हाजिर हवा अर्थात् सर्व विकार जीत्या यातें परमात्म की प्राप्ति हुई ॥२९॥
.
*= पीताम्बरी टीका =* 
एक उत्तम संस्कार - युक्त अधिकारी पुरुष अहेरी(शिकारी) संसाररूप बन में आयो । कहिये कर्मवश तें नरदेह कूं प्राप्त भयो । सो बंधननिवृत्तिरूप भली(अच्छी) शिकार खेलन लाग्यो । 
ता शिकारी ने अन्तःकरण की वृत्तिरूप कर(हाथ) में गुरुमुख द्वारा श्रवण किये हुवे महावाक्य के अर्थरूप धनुष धारण करिके । औ हृदयरूप कमरि में अनेक युक्ति औ विचाररूप बाणयुक्त अन्तःकरणरूप तरकस(भाथा) बाँधिके । बारंबार श्रवणादि सहकारी - द्वारा । सावज(मारनेलायक जानवर) घेर कहिये रोके ।
ज्ञानरूप युद्धकरि मूला - अज्ञानरूप सिंह मार्यो । पुनि काम - क्रोधादि बहुरि मृगन की डार(पंक्ति) मारी कहिये बाधित कीनी । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि ऐसे सकल प्रपंचरूप शिकार कूं मारि(बाध करिके) घर लायो । कहिये पूर्व अज्ञानदशा में अधिष्ठान ब्रह्म तें भिन्न प्रपंच कूं मानतो थो । सो अब बाधितानुवृत्ति करि अधिष्ठान में कल्पित अनुभव करने लग्यो । औ ब्रह्मरूप राजहि(राजा कूं) जुहार कियो । कहिये अपनी आप करि जान्यो । तातें मुक्तिरूप मौज मिली ॥ 
.
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“बन में एक अहेरिये, दीन्हीं अग्नि लगाई ।
सुन्दर उलटे धनुष सर, सावज मारे आइ” ॥४१॥ 
“मारयौ सिंघ महाबली मारयौ व्याघ्र कराल । 
सुन्दर सबही घेरि करि, मारी मृग की डाल” ॥४२
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें