मंगलवार, 5 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२४)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पहराइत घर मुस्यौ साह कौ*
*रक्षा करनै लागौ चोर ।* 
*कोतवाल काठौ करि बांध्यौ*
*छूटै नहीं सांझ अरु भोर ।*
*राजा गांव छोडि करि भागौ*
*हूवौ सकल जगत मैं सोर ।* 
*परजा सुखी भई नगरी मैं*
*सुन्दर कोई जुलम न जोर ॥२४॥* 
*= ह०लि० १,२ टीका =* 
पहराइत जो आपका कार्य में सदा जागता तत्पर रहै आलसै नहीं ऐसा जो काम क्रोध इन्द्रिय वृत्यादि जिना नैं साह नाम ताको घर मुस्यौ सर्ब शुभ गुणां को नाश करि दियो । अर चोर जो परमेश्वरजी को नाम - “नारायणो नाम नरो नाराणां प्रसिद्ध चौरः कथित पृथिव्याम्” इति भारते करणें लागो शुभगुणां की । 
कोतवाल नाम अज्ञान काल में सर्व काम को कर्त्ता काठो करि पकड्यो निश्चल कर्यो, सो चोर(परमेश्वर) कोतवाल(मन) को निश्चल रहै ऐसे कियो विकारां मे वाकी प्रवृत्ति होय सकै नहीं । 
तब राजा नाम रजोगुण हो सो गांव नाम ह्रदो वा काया ताकों छोड़ि करि भाग्यो नाम निवृत्त हुवो । इतनी बात जब हुई जब बनी तब वा पुरुष को सम्पूर्ण संसार में सर हुवो नाम ता पुरुष को सर्व संसार में जस प्रवर्त्त हुवो । 
प्रजा नाम दैवी - संपदा का गुण, क्षमा दयाशील संतोष, ये सर्व ही वा हदा वा कायरूपी नगरी में सदा सुख सों बसै हैं, जुलम न जोर, किसी प्रकार की उपाधि नहीं, सदाकाल शांतवृत्ति आनन्द रहै हैं ॥२४॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
जीवरूप शाह कहिये साहूकार है । ता शाह के अंतःकरणरूप घर में पहराइत(पहरा करने वाली) जो प्रवृत्ति का परिवार काम - क्रोधादिक सिपाही हैं । वे आत्मा - धन की चोरी करने के वास्तै घुसै । काहेतैं ? जौलौं अज्ञानजन्य कामक्रोधादिक अन्तःकरण में रहै हैं तौंलौं वही चौकी करने वाले सिपाही आत्मवस्तु और किसी कूं लेने देवै नहीं है किन्तु आप तिस अंतःकरण रूप गृह में पैठिके वे आत्मधन अपने स्वाधीन करि ताकूं आवरणरूप पेटी में छिपाई देवै हैं । औ शीतालक्षमादिक जो निवृत्ति का परवार है सोई मानों चोर है । काहेते, वे आत्मवस्तु कूं उक्त चौकीवालों से ले करिके अपने स्वाधीन रखने कूं चाहते हैं । सो आत्मधनयुक्त अंतःकरणरूप गृह की रक्षा करने लागे, अर्थात् पुर्वोक्त दुर्गुण कूं अंतःकरण तै निकासि के आत्मा कूं अज्ञानकृत आवरणतैं रहित करने लागे ।
इस बात की जीवरूप साहूकार कूं खबर होते ही, सो अहंकार - रूप कोटवाल के पास फरियाद करने कूं गयो और कहने लाग्यो कि मेरे धन की रक्षा करने वाले जो क्राम - क्रोधादिक हैं वे सब मिलि के मेरे घर में चोरी करने लगे, औ जो शीलक्षमादिक इस धनकी चोरी करने वाले हैं सो रक्षा करने लगे । तिन दोनों पक्षन में अति कलह हुवा है सो कैसे निवृत्त होवैगा ? औ तिस कलह की शांति के वास्तै मेरे कूं क्या कर्तव्य है ? सो कृपा करिके कहिये । तब वो कोटवाल बोला कि - शील - क्षमादिक चोरन कूं निकासि देहु औ कामक्रोधादिक पहराइतन की रक्षा करहु । काहेतें, शील - क्षमादिकन के स्वाधीन जो आत्मधन होवैगा तो इस धन करि नाना प्रकार के विषयसुख तेरे से भोग्या नहीं जावैगा, औ यह धन कामोक्रोधादिकन के स्वाधीन रहैगा तो वे सुख विषयसुख भोगे जावैगे । यह बात सुनिके वो जीवरूप साहूकार किसी साधुरूप वकील कूं पूछने लग्यो कि अब मेरे कूं क्या कर्तव्य है ? तब वे साधु निष्पक्षपात बुद्धि करिके कहने लगे कि कामोक्रोधादिकन कूं अपने घरतें निकासि देहु औ शीलक्षमादिनकन का अंगीकार करहु, क्यूंकि वे तेरे शत्रु हैं और ये तेरे मित्र हैं । वे तेरी पूंजी का नाश करैंगे औ ये तेरी पूंजी की रक्षा करेंगे । औ अहंकाररूप कोटवाल है से कामोक्रोधादिकन का पक्ष करै है काहेतैं कि तिनकी उत्पत्ति अहंकार तें हुई है । तातें पक्षपात करने वाला जो कोटवाल है ताकूं ही शिक्षा करनी चाहिए । यह बात सुनते ही साहूकार क्रोधायमान होयके तिस मिथ्या अहंकार - रूप कोटवाल कूं सत्यतारूप काठौ करि बांध्यौ, कहिये काष्ट के बंधन में डाल दियो, औ ताके ऊपर सतसंगरूप पहरा करने वालों एसो मजबूत जमादार रख्यौ कि वो तहां से सांझ अरु भोर(संध्या औ प्रातःकाल) आदि किसी समय में छूटै नहिं । 
यह बात सुनि के देहादि संघात के अभिमान - रूप गाम(नगरी) कूं छोडिके मूलाज्ञानरूप राजा भाग्यो ताको सकल जगत में सोर हुवो । काहेतें कि वे अज्ञान फिर कतहूं देखने में आयो नहीं । ऐसे उक्त प्रकार करि चोरन की न्यांई धन चोरने कूं पहराइत घर में घुसे औ धन की चोरी करने वाले की रक्षा करने लगे । औ गाम का कोटवाल साहूकार के हाथ तें बंधन कूं पाया । सो बात सुनिके तहाँ का राजा गांव् छोडि के भाग गया । 
तब तिस नगरी मैं सब श्रेष्ठगुणरूप परजा सुखी भई । *सुन्दरदासजी कहैं है* कि न कोई जुलम हुवा । न किसी का किसी पर जोर चल्या ॥२४॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“पहराइत घरकौ मुसै, साह न जानै कोई । 
चोर आइ रक्षा करै, सुन्दर तब सुख होई” ॥३३॥ 
“कोतवाल कौं पकरि के, काठौ राख्यौ जूरि ।
राजा भाग्यो गांव् तजि, सुन्दर सुख भरपूरि” ॥३४॥ 
(क्रमशः)

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