卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।
अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहबा संग ॥
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।
सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥
सुरति सदा साबति रहै, तिनके मोटे भाग ।
दादू पीवैं राम रस, रहैं निरंजन लाग ॥
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
दीपक तले अन्धेरा क्यों …… ओशो ......
आत्मा शाश्वत तत्व है, शरीर शाश्वत नहीं है। इसलिए तुम शरीर को पकड़ते हो, देखते हो, संभालते हो, खोजते हो। शरीर के सुखों की चिंता करते हो। इसलिए दिया तले अंधेरा इकठ्ठा हो जाता है। तुम चाहे स्वीकार करो या न करो। तुम्हारे चित्त में यह तीर चुभा ही है कि शरीर मरेगा।
आत्मा अमृत है। तुमने जाना हो न जाना हो; उसका अमृत स्वर तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हो रहा है। तुम पहचानो, न पहचानो; सुनो न सुनो। वह स्वर वहां गूंज ही रहा है। जो अमृत है उसे भूलना आसान है। जो मरणधर्मा है उसे भूलना कठिन है। जो मरणधर्मा है उसे जल्दी भोग लो। गणित सीधा और साफ है। आत्मा अमृत है, शाश्वत है। वह संपदा खोनेवाली नहीं है वहां कभी कोई बीमारी प्रविष्ट नहीं होती। इन सब कारणों के कारण दिये तले अंधेरा है।
बुद्ध कितना ही कहें, 'जल्दी करो' तो भी जल्दी नहीं होती। कृष्ण कितना ही समझाएं, तुम समझ लेते हो फिर जाकर अपने संसार में लग जाते हो। यह बात इतने लोग समझाते हैं, फिर भी समझ में नहीं आती। शरीर के संबंध में कोई भी नहीं समझा रहा है, फिर भी समझ में आता है कि भोग लो। यह धारा सदा न रहेगी।
ये सारे कारण अगर ठीक से देख लोगे, तुम्हें समझ में आयेगा कि क्यों चेतना की धारा बाहर की तरफ बह रही है और भीतर की तरफ नहीं। क्यों तुम बाहर की तरफ देख रहे हो और भीतर नहीं। क्यों तुम धन खोज रहे हो, पद खोज रहे हो, संसार खोज रहे हो; आत्मा परमात्मा, मोक्ष नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक घटना है। दीया तले अंधेरा बिलकुल स्वाभाविक है।
यह वैसे ही है, जैसे साधारण मिट्टी के दिये के नीचे अंधेरा होता है। ऐसे ही तुम्हारे नीचे अंधेरा है। यह अंधेरा कब तक रहेगा ?
जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दिया है, तब तक अंधेरा रहेगा।
आचार्य रजनीश[ओशो] !
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