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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*राजा फिरै विपत्ति कौ मार्यौ*
*घर घर टुकरा मांगै भीख ।*
*पाइ पयादौ निशि दिन डोलै*
*घोरा चालि सकै नहिं बीख ॥*
*आक अरंड की लकरी चूंषै*
*छाडै बहुत रस ही भरे ईख ।*
*सुंदर कोउ जगत मैं बिरलौ*
*या मूरख कौं लावै सीख ॥२५॥*
.
*= ह०लि० १,२ टीका =*
राजा नाम जीव वा मन, सो विपत्ति नाम अनेक प्रकार की तृष्णारूप आपदा ताको मारयो फिरै नाम चंचल हुवो रहै, घर - घर नवद्वार तीनां का विषय सुख तिनां को टुकरो किंचित् मात्र जो अंश ताकी प्राप्ति होवै सोई टुकरो ताकों मांगतो डोलै, फिरै नवद्वारा में जहां तहां फिरै ।
पाय पयादों नाम आपकी आपकों संभाल नहीं रहै ऐसी तरह भोगां में अति आतुर चंचल होयके फिरै है । अरु वाको घोरा नाम शरीर जो शक्ति - हीन होय गयो तासों एक पगमात्र चल्यो जाय नहीं तो पण मन तो अति चंचल ही रहै ।
आक अरंड की लकरी लोक - परलोक में दुःखदायीरूप जो विषय विकार इन्द्रियां का भोग - क्रोध - मोहादिक तिनही को अंगीकार करै यों मन को स्वभाव है । अरु जो महा अमृतरूप या लोक परलोक में सुखदाई मिष्टरस भर्या ईख तुले भगवत भजन ध्यानादि तिन कों न लेवै ऐसो मलीन या मन को स्वभाव है ।
ऐसो मूरख जो यह मन महा अज्ञ मन को सीख देकरि शुद्ध करै ऐसा पुरुष जगत में बिरला है, ऐसे मनकों जीतनों अति कठिन है, जब भगवत् कृपा होय तब मन शुद्ध होय, तामें भगवत् कृपा के अर्थ भजन ध्यान अखंड करनों - यही उपाय है, अवर नहीं ॥२५॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
चेतन के प्रतिबिम्ब - युक्त जो मन है ताकों यहां राजा कहै हैं । सो आशा तृष्णा अभिलाषा औ कामानादि भेद करि भिन्न भिन्न इच्छारूप विपत्ति(दुःख) को मार्यो चौदह भुवनरूप भिन्न भिन्न ग्रहन में, अथवा दश इन्द्रिय रूप प्रतिग्रह में, अथवा राज्यादि पदवी - रूप घर - घर में फिरै कहिये भटकै है । औ परिच्छन्न विषय भोग - रूप टुकरा की भीष मांगै है ।
शुभ और अशुभ मनोभाव हैं सोई मानौं दो पाँव है तिनके अनुसार नाना प्रकार की वृत्तिरूप गति करि निशि(स्वप्न में) दिन(जाग्रत में) पाइ पियादे डोलै है अर्थात् स्थूल शरीररूप घोडा की सहायता नहीं मिलै है । काहेतै कि मनमें जो नानाप्रकार के संकल्पविकल्प रूप भाव उत्पन्न होवै हैं । सो यद्यपि पूर्व कर्मानुसार होवै हैं तथापि सो सर्व फल के देने वाले नहीं होवै है । मनोरथ मात्र होवै हैं । जैसे किसी भिक्षुक के मन में ऐसा भाव होवै है कि ‘नगरी का अधर्मी राजा मर जावै औ ताका राज्य मेरे कूं प्राप्त होवै तो मैं धर्मन्याय करू’ । यामें राजा के मरने की जो इच्छा है सो अशुभ है और धर्मन्याय की इच्छा है सोशुभ है, परन्तु सो दोन्यूं होने कूं अशक्य हैं । जो क्रिया का होना है सो फल रूप है । सुख दुःख के भोग कूं कर्म का फल कहै हैं । सो कर्मफलरूप भोग यद्यपि शरीर करि होवै है तथापि कर्मफल देने वाले मनोरथन तें सो भोग होवै हैं । फल रहित मनोरथन से भोरूप क्रिया होवै नहीं । औ मन में तो जाग्रत औ स्वप्न इन दोनूं अवस्था में अंतराय - रहित अनंत संकल्प - विकल्प होवै है सो सब शरीर की क्रिया के हेतु नहीं है । ऐसे ज्ञान बिना भटकत फिरता है । औ उक्त स्थूल शरीररूपी जो घोरा है सो निष्फल मनोरथन के बल करि क्रियारूप बेश(चाल) चालि नहीं सकै है । अर्थात् मन की न्याई शरीर की गति नहीं होवै है ।
पूर्वोक्त नाना मनोरथजन्य जो वासना है सो ... फलदायक नहीं होने तें रस - रहित हैं, तातें ही तिनकूं आक औ अरंड की लकरियां कही हैं । सो चूसै है कहिये मनोराज्य करै है । औ ईश्वर की उपासनादि आदि के साधनरूप बहुत रसभरे ईष(गंडा) कूं छांडै है कहिये त्यागै है ।
सुन्दरदासजी कहैं है कि इस जगत में ऐसा कोऊ बिरलो सत्पुरुष है जो या अज्ञानीरूप मूरष कों सीष(शिक्षा) लावै । अर्थ यह है - पूर्वोक्त अस्थिर मन वाले कूं बोध होना कठिन है, काहेतैं कि चंचलमनवाले कूं उपासनादिक्रम तैं साधन द्वारा ज्ञान होने का संभव है । ताकूं साधन बिना ज्ञान होवै नहीं । ऐसे जान के जो सत्पुरुष प्रथम साधन करावै औ पीछे बोध करै । ऐसा अद्भुत कृत्य ब्रह्मनिष्ठ औ श्रोत्रिय से होवै है और से होवै नहीं, सो मिलना कठिन है । तातें ऐसे अज्ञानी कूं बोध करने वाला बिरला कह्या है ॥२५॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
*सुन्दर राजा बिपति सौं, घर - घर मौंगे भीष ।*
*पाय पयादौ उठि चलै, घोर भरै न बीष ॥३६॥*
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*राजा फिरै विपत्ति कौ मार्यौ*
*घर घर टुकरा मांगै भीख ।*
*पाइ पयादौ निशि दिन डोलै*
*घोरा चालि सकै नहिं बीख ॥*
*आक अरंड की लकरी चूंषै*
*छाडै बहुत रस ही भरे ईख ।*
*सुंदर कोउ जगत मैं बिरलौ*
*या मूरख कौं लावै सीख ॥२५॥*
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*= ह०लि० १,२ टीका =*
राजा नाम जीव वा मन, सो विपत्ति नाम अनेक प्रकार की तृष्णारूप आपदा ताको मारयो फिरै नाम चंचल हुवो रहै, घर - घर नवद्वार तीनां का विषय सुख तिनां को टुकरो किंचित् मात्र जो अंश ताकी प्राप्ति होवै सोई टुकरो ताकों मांगतो डोलै, फिरै नवद्वारा में जहां तहां फिरै ।
पाय पयादों नाम आपकी आपकों संभाल नहीं रहै ऐसी तरह भोगां में अति आतुर चंचल होयके फिरै है । अरु वाको घोरा नाम शरीर जो शक्ति - हीन होय गयो तासों एक पगमात्र चल्यो जाय नहीं तो पण मन तो अति चंचल ही रहै ।
आक अरंड की लकरी लोक - परलोक में दुःखदायीरूप जो विषय विकार इन्द्रियां का भोग - क्रोध - मोहादिक तिनही को अंगीकार करै यों मन को स्वभाव है । अरु जो महा अमृतरूप या लोक परलोक में सुखदाई मिष्टरस भर्या ईख तुले भगवत भजन ध्यानादि तिन कों न लेवै ऐसो मलीन या मन को स्वभाव है ।
ऐसो मूरख जो यह मन महा अज्ञ मन को सीख देकरि शुद्ध करै ऐसा पुरुष जगत में बिरला है, ऐसे मनकों जीतनों अति कठिन है, जब भगवत् कृपा होय तब मन शुद्ध होय, तामें भगवत् कृपा के अर्थ भजन ध्यान अखंड करनों - यही उपाय है, अवर नहीं ॥२५॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
चेतन के प्रतिबिम्ब - युक्त जो मन है ताकों यहां राजा कहै हैं । सो आशा तृष्णा अभिलाषा औ कामानादि भेद करि भिन्न भिन्न इच्छारूप विपत्ति(दुःख) को मार्यो चौदह भुवनरूप भिन्न भिन्न ग्रहन में, अथवा दश इन्द्रिय रूप प्रतिग्रह में, अथवा राज्यादि पदवी - रूप घर - घर में फिरै कहिये भटकै है । औ परिच्छन्न विषय भोग - रूप टुकरा की भीष मांगै है ।
शुभ और अशुभ मनोभाव हैं सोई मानौं दो पाँव है तिनके अनुसार नाना प्रकार की वृत्तिरूप गति करि निशि(स्वप्न में) दिन(जाग्रत में) पाइ पियादे डोलै है अर्थात् स्थूल शरीररूप घोडा की सहायता नहीं मिलै है । काहेतै कि मनमें जो नानाप्रकार के संकल्पविकल्प रूप भाव उत्पन्न होवै हैं । सो यद्यपि पूर्व कर्मानुसार होवै हैं तथापि सो सर्व फल के देने वाले नहीं होवै है । मनोरथ मात्र होवै हैं । जैसे किसी भिक्षुक के मन में ऐसा भाव होवै है कि ‘नगरी का अधर्मी राजा मर जावै औ ताका राज्य मेरे कूं प्राप्त होवै तो मैं धर्मन्याय करू’ । यामें राजा के मरने की जो इच्छा है सो अशुभ है और धर्मन्याय की इच्छा है सोशुभ है, परन्तु सो दोन्यूं होने कूं अशक्य हैं । जो क्रिया का होना है सो फल रूप है । सुख दुःख के भोग कूं कर्म का फल कहै हैं । सो कर्मफलरूप भोग यद्यपि शरीर करि होवै है तथापि कर्मफल देने वाले मनोरथन तें सो भोग होवै हैं । फल रहित मनोरथन से भोरूप क्रिया होवै नहीं । औ मन में तो जाग्रत औ स्वप्न इन दोनूं अवस्था में अंतराय - रहित अनंत संकल्प - विकल्प होवै है सो सब शरीर की क्रिया के हेतु नहीं है । ऐसे ज्ञान बिना भटकत फिरता है । औ उक्त स्थूल शरीररूपी जो घोरा है सो निष्फल मनोरथन के बल करि क्रियारूप बेश(चाल) चालि नहीं सकै है । अर्थात् मन की न्याई शरीर की गति नहीं होवै है ।
पूर्वोक्त नाना मनोरथजन्य जो वासना है सो ... फलदायक नहीं होने तें रस - रहित हैं, तातें ही तिनकूं आक औ अरंड की लकरियां कही हैं । सो चूसै है कहिये मनोराज्य करै है । औ ईश्वर की उपासनादि आदि के साधनरूप बहुत रसभरे ईष(गंडा) कूं छांडै है कहिये त्यागै है ।
सुन्दरदासजी कहैं है कि इस जगत में ऐसा कोऊ बिरलो सत्पुरुष है जो या अज्ञानीरूप मूरष कों सीष(शिक्षा) लावै । अर्थ यह है - पूर्वोक्त अस्थिर मन वाले कूं बोध होना कठिन है, काहेतैं कि चंचलमनवाले कूं उपासनादिक्रम तैं साधन द्वारा ज्ञान होने का संभव है । ताकूं साधन बिना ज्ञान होवै नहीं । ऐसे जान के जो सत्पुरुष प्रथम साधन करावै औ पीछे बोध करै । ऐसा अद्भुत कृत्य ब्रह्मनिष्ठ औ श्रोत्रिय से होवै है और से होवै नहीं, सो मिलना कठिन है । तातें ऐसे अज्ञानी कूं बोध करने वाला बिरला कह्या है ॥२५॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
*सुन्दर राजा बिपति सौं, घर - घर मौंगे भीष ।*
*पाय पयादौ उठि चलै, घोर भरै न बीष ॥३६॥*
(क्रमशः)
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