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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५९ =*
*= राजा बीरबल को दीक्षा देना, राजा भगवतदास का आतिथ्य स्वीकार करके सीकरी से प्रस्थान करना =*
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४० वें दिन की रात्रि व्यतीत हो गई । ४१ वें दिन एक पहर दिन चढने पर राजा बीरबल दादूजी को शिष्यों सहित अपने महल में ले गये । वह महल बहुत ही अच्छी प्रकार सजाया गया था । उसकी विछायत आदि सजावट को देखकर मनुष्य की तो बात ही क्या देवता भी मोहित हो जायें ऐसी थी ।
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बीरबल ने अन्य राजा महाराजाओं को भी बुलाया था । उन सब के मध्य में दादूजी को एक उच्च आसन पर विराजमान किया था । उन राजाओं के मध्य में दादूजी ऐसे सुशोभित हो रहे थे. जैसे तारों में चन्द्रमा । दादूजी का भजन प्रताप रूप तेज, राज तेज से अति महान्था । राजा बीरबल ने पहले ही मोहर तथा रुपयों को मिलाकर एक थैली भर रखी थी और बहुत से नवीन वस्त्र भी रखे थे ।
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फिर राजा बीरबल ने उचित समय देख कर अपने सेवकों को संकेत किया कि थैली और वस्त्र ले आओ, फिर दादूजी महाराज के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की - हे सर्वहितैषी सर्व सुखदाता स्वामिन् ! मेरी विनय मान करके मुझे भी सुख प्रदान कीजिये ।
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ऐसा कह कर वह थैली और वस्त्र आगे रख दिये और कहा - आप शिष्यों को उन की इच्छा के अनुसार वस्त्रादि प्रदान करैं । जैसे २ राजा बीरबल उक्त सामग्री को दादूजी के चरणों की ओर बढ़ा रहे थे, वैसे-वैसे ही दादूजी उदास होते जाते थे ।
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फिर दादूजी ने कहा - यदि तुम मुझे सुख देना चाहते हो तो लेने(वर) देने(धनादि) का नाम भी मत लो । खाली बर्तन में ही जल समाता है, भरे हुये में डालने से तो वह बाहर ही निकलता है । हमारे मन में हरि चिन्तन बिना अन्य के लिये स्थान नहीं है । हम इन मोहर, रूपयों को कहां ले जायेंगे ? तब राजा बीरबल ने हाथ जोड़कर कहा - आप हमारी भलाई के लिये इतनी कृपा तो अवश्य करें । अपने कर कमलों द्वारा गरीबों को बांट दे ।
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तब दादूजी ने कहा - माया किसकी है ? और गरीबों का स्वामी कौन है ? वह विश्वंभर परमात्मा सभी दिशाओं में सबका भरण-पोषण करते हैं । हमें तो उन प्रभु के भरण-पोषण रूप कार्य में कहीं भी कमी नहीं दिखाई देती है । फिर नम्र भाव से राजा बीरबल ने कहा स्वामिन् ! आपको समर्पण करी हुई वस्तु कौन रख सकता है ? तब दादूजी ने कहा - तुम अपने हाथों से ही बाँट दो, वह परमेश्वर के ही समर्पण हो जायेगी ।
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तब राजा बीरबल ने ब्राह्मण, भाट आदि को बुलवाया और गरीब तो बांटने का नाम सुनकर आप ही आ गये । तब दादूजी ने कहा - अब तुम बाँट दो । तब बीरबल ने वह धन वस्त्र सब बाँट दिये । उस समय दादूजी में दोष दृष्टि रखने वाला एक ब्राह्मण भी आया था, उसको मिलने पर वह बारंबार राजा बीरबल को धन्यवाद देता था ।
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राजा बीरबल उसकी बात को अनसुनी कर रहे थे । किंतु वह तो राजा बीरबल के पीछे लगकर धन्यवाद देता ही रहा । तब राजा बीरबल ने कहा - हमें तो ईश्वर ने धन कुटुम्ब आदि सब दिया है, तो भी मन की आशा पूर्ण नहीं कर पाये हैं । धन्यवाद तो माया त्यागने वाले दादूजी को है । वे ही इस कलियुग में परम विरक्त हैं ।
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बीरबल ने जो उक्त वचन ब्राह्मण को कहा, उससे दादूजी ने बीरबल को अच्छा विवेकी समझा और विशेषरूप से दादूजी ने कहा - अच्छी बुद्धि तो अच्छी ही होती है किन्तु परमात्मा का रहस्य भी समझना चाहिये । यह सुनकर राजा बीरबल ने अपने शिर की पगड़ी उतार कर दादूजी के चरणों में रखकर विनय की ।
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भगवन् ! मैं तो ईश्वर सम्बन्धी रहस्य कुछ भी नहीं समझता हूँ, आप ही समझाकर मेरी लज्जा रखें । तब स्वामी दादूजी के मन में दया का भाव जाग्रत हो गया, उन्होंने दयाकर के बीरबल की पगड़ी अपने दोनों हाथों से उठाकर बीरबल के शिर पर रखदी और बोले - जिन प्रभु के शिर पर तीन लोक का भार है, वे सृष्टिकर्ता प्रभु ही तुम्हारी लाज रखेंगे । तुम प्रभु का रहस्य नहीं जानते तो भी जैसे पारस के सपर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है, वैसे ही बिना जाने भी सत्संग से तो लाभ ही होता है ।
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उक्त प्रकार दादूजी की परीक्षा लेकर राजा बीरबल ने दादूजी से दीक्षा ली । फिर बोला - स्वामीजी ! मैं अपना राजपाट आपके चरणों पर निछावर करता हूँ और मैंने यही विचार किया है कि हे जीव ! तेरा कुछ भी नहीं है ।
(क्रमशः)
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