गुरुवार, 7 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२७)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*खसम परयो जोरू कै पीछे*
*कह्यौ न मानैं भौंडी रांड । 
*जित तित फिरै भटकती यौंही*
*तैं तौ किये जगत मैं भांड ॥*
*तौ हू भूख न भागी तेरी*
*तूं गिलि बैठी सारी मांड ।* 
*सुंदर कहै सीख सुनि मेरी*
*अब तूं घर घर फिरबौ छांड ॥२७॥*

*= ह० लि० १, २ टीका =* 
खसम जो मन सो जोरू नसा ताके पीछे परयो नाम सीख देणें लागौ खिजिकै रीस करिकैं, भोंडी नाम बुरी विषय विकारों करि मलीन । 
जहां तहां योंही नाम वृथा ही विषय विकार रूप संकल्पां में भाजती फिरै, तैं तो मनैं भी जगत मैं भांड कियो, याकौ यह अर्थ है जो सूक्ष्म वासनारूप जो संकल्प हैं सो मन में उदय होयकैं प्रगटैं सो मनही को वाको दूषण आवै । 
सारी मांड नाम सर्व पदार्थां को तृष्णाद्वारि ते गिलि बैठी नाम खाय बैठी, तेरी ओरुं भी भूख भागी नहीं नाम तृप्ति हुई नहीं अब तो तृष्णा दूरि कर । 
तासों मन कहै है हे मनसा अब तो तृष्णा को छांडिकर निश्चल होहु अरु घरिघरि फिरणों छांडि दे । घरि घरि नाम स्वर्ग मृत्यु पाताल लोकां में अथवा चौरासी जोनि जन्मां में अथवा संसारी जनां का घर घर में अथवा नवद्वारों का विषयविकारां में, इन स्थानों में, सर्वथा फिरनों छांडि दे, ज्यूं सर्व सुखको प्राप्त होय ॥२७॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
चिदाभास - सहित अन्तःकरण जो जीव है ताकूं यहाँ खसम कह्या है । सो बुद्धिरूप जोरू कै पीछै पर्यो । ता जोरू ने शुभाशुभ कर्मन के बलकरि अनंत चौरासीलक्ष येनि में भटकायो । औ तिन योनिजन्य अनंतयातना(पीड़ा) सहन कराई । ऐसे अगणित दुःखसहन करते हुवे कदाचित् काकतालीय न्यायवत् शुभाशुभ कर्मन करि मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई, तामें किसी उत्तम संस्कार के लिये सत्संगादिकन की प्राप्ति भई । तिस क्षण में बुद्धि की अवस्था, यत्किंचित् फिरि । तब ताकूं सो जिव कहने लगा कि तैंने मेरी बहुत दुर्दशा करी, अब मेरे तें ऐसा दुःख सहन नहीं होवै है । तातें अब तूं ज्ञान में प्रवृत्त होय के अन्तःकरण की वासना का त्याग करहु तातें मेरा जन्म मरण निवृत्त होवै । इत्यादिक वाक्यन करि विचारपूर्वक, आर्त्तजन अपनी बुद्धि कूं बहुत कहि समुझावै है । परन्तु वासना के बसि भई भौंडी(भ्रष्ट) रांड(रंडा) कह्यौ नहीं मानै हैं । अर्थात् निरन्तर सत्संग में प्रवृत्त होय के ज्ञानवान नहीं होवै है । काहेतें कि ज्ञान की प्रतिबंधक जो अशुभकर्मजन्य वासना है सो तिस शरीर में ज्ञान की प्राप्ति का असंभव होने तें बुद्धिकूं सत्संगादिकन में प्रवृत्ति करावने नहीं देवै है । 
औ जित तित कहिये जिस किस विषय में यूंही भटकती फिर है जैसे व्यभिचारिणी स्त्री कामातुर भई हुई स्पर्श विषय के अर्थ जहां तहां भटकती फिरै है ओ ताका ही निरंतर ध्यान लग्या रहै है । सों जौलौं पति ताके आधीन होवै तौंलौं सो कृत्य निर्भयता तें होवै है । परन्तु जब पति कूं तिस बात की कछु खबरि होवै है तथापि वासना के बल सो व्यसन शीघ्र छूटै नहीं है । सो देखिके ताका पति बहुत युक्तियों करि समुझावै है । परन्तु सो जब समुझे नहीं तब कोपायमान होयके कहै रांड तैं तौ मेरेकूं जगत् में भांड(फजीहत) कियो है । तैसे जीवरूप खसम भी अपनी बुद्धिरूप जोरूकूं व्यभिचारिनी देखिके क्रोधायमान होयके कहै है कि इस जगत में तैनें मेरे कूं ऐसा फजीहत कर्या है कि जानें मेरी परिपूर्णतारूप प्रतिष्ठा - अद्वैतरूप नाम औ अखंडानंदरूप धन आदिकन का अभाव की न्यांई होई गया है । 
ऐसी मेरी प्रभुतारूपी सारी मांड(बडाई) तूं गिल बैठी । तौहूं तेरी तृष्णारूप भूख न भागी(नाश नहीं भई) अर्थात् ब्रह्म तैं जीव किया तौभी तेरी तृप्ति भई नहीं है । अब क्या पत्थर की न्यांई जड़ करने कूं चाहती है ? ऐसे अति तीक्ष्ण वचन कहै है । *सुन्दरदासजी कहैं है* कि हे बुद्धि ! अब मेरी सीख(शिक्षा) सुनि के, कहिये इस मनुष्य जन्म विषै ज्ञान कूं पायके अब तूं अनेक विषयरूप या अनेक योनिरूप घर - घर में फिरबो छांड अर्थात् ज्ञानहुवे पीछे विषयवासना के अभाव हुवे जन्म मरण की निवृति होवै है । ऐसें कह्या ॥२७॥ 
*सुन्दरदासजी* ने इस पर कोई साखी नहीं कही है । 
(क्रमशः)

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