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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५९ =*
*= राजा बीरबल को दीक्षा देना, राजा भगवतदास का आतिथ्य स्वीकार करके सीकरी से प्रस्थान करना =*
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फिर स्वामी दादूजी राजा बीरबल पर दया करके भाव भक्ति का उपदेश देते हुये बोले -
"जप गोविन्द विसर जनि, जन्म सफल करिये लै लाय ॥टेक॥
हरि सुमिरण से हेत लगाय, भजन प्रेम यश गोविन्द गाय ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमिर जग सिरजनहारा ॥१॥
जब लग विषम व्याधि नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई ।
जब लग शब्द पलट नहिं जाई, तब लग सेवा कर राम राई ॥२॥
अवसर राम कहसि नहिं लोई, जन्म गया तब कहै न कोई ।
जब लग जीवे तब लग सोई, पीछे फिर पछतावा होई ॥३॥
सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे ।
गुरु मुख भरम-तिमर सब भागे, बहुर न उलटे मारग लागे ॥४॥
ऐसा अवसर बहुर न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा ।
दादू हारि जीत जग आया, बहुत भांति कह-कह समझाया ॥५॥
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उक्त प्रकार दीक्षा समारोह समाप्त हो जाने पर तथा प्रसाद बँट जाने पर और आगत राजा लोगों तथा श्रीमानों के चले जाने पर राजा बीरबल दादूजी महाराज को अपने जनाने महल में ले गया । वहां की मातायें दादूजी का दर्शन करके अत्यन्त प्रसन्न हुई, वहां का महल, निवास स्थान सब दादूजी को दिखाये किन्तु दादूजी उन सबको देखकर उदास ही हुये ।
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फिर राजा बीरबल ने दर्पण महल दिखाकर दादूजी को पूछा - भगवन् ! यह महल कैसा है । तब दादूजी ने कहा - ये सब मिथ्या हैं । तब राजा बीरबल बोला - हे भगवन् ! जब मिथ्या ही है, तो इन सबको त्याग करके मैं भी आपके साथ चलता हूँ । तब दादूजी ने कहा - हमारे साथ चलने की तो आवश्यकता नहीं है, इन सब को मिथ्या समझकर इनसे परोपकार करो, अपना कुछ भी मत मानो ।
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जैसे मुनीम सेठ की वस्तुओं को अपनी नहीं मानकर उनसे काम लेता है, वैसे ही सब कुछ प्रभु का ही है ऐसा समझकर परोपकार द्वारा प्रभु की संपत्ति प्रभु के ही समर्पण करते रहो । इसका नाम त्यागना ही है । संपत्ति को अपनी मानकर आसक्त होने से ही संपत्ति हानिकारक सिद्ध होती है ।
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जैसे जल में कमल रहता है किन्तु जल के ऊपर ही रहता है, वैसे शरीर संसार में रहे किन्तु मनोवृत्ति को प्रभुपरायण रखने का यत्न रखना चाहिये । तभी कल्याण होता है, केवल गृह त्यागकर भ्रमण करने से ही कल्याण नहीं होता । फिर अन्तःपुर की माताओं को प्रसाद प्रदान करके दादूजी राजा बीरबल के साथ बाहर आये ।
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उस समय राजा बीरबल के रोम हर्ष से खड़े हो रहे थे तथा वाणी भी गद्गद् और प्रेमावेश से नेत्रों में भी जल भर रहा था । वे अपने को सम्यक् संभाल नहीं रहे थे, वे यह सोचते हुये कि मैं गुरुदेव की क्या सेवा करूँ कुछ पीछे रह गये थे । होश आने से सेवक को कहा - शीघ्र जाकर स्वामीजी को द्वार पर रोको, मैं पुनः एक बार दर्शन तो करलूँ ।
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सेवक ने आकर दादूजी महाराज को प्रार्थना की - स्वामिन् ! राजा बीरबल आ रहे हैं, आप थोड़े रुकें । इतने में तो राजा बीरबल आ गये । उक्त प्रकार एक दिन राजा बीरबल के अतिथि रहे । आगे द्वार पर आमेर नरेश भगवतदास के सेवक दादूजी महाराज को बुलाने आये हुये थे । उन्होंने राजा बीरबल को आमेर नरेश का संदेश दिया और कहा - उन्होंने कहा है कि स्वामीजी को मेरे यहां भिजवा दें ।
(क्रमशः)
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*= विन्दु ५९ =*
*= राजा बीरबल को दीक्षा देना, राजा भगवतदास का आतिथ्य स्वीकार करके सीकरी से प्रस्थान करना =*
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फिर स्वामी दादूजी राजा बीरबल पर दया करके भाव भक्ति का उपदेश देते हुये बोले -
"जप गोविन्द विसर जनि, जन्म सफल करिये लै लाय ॥टेक॥
हरि सुमिरण से हेत लगाय, भजन प्रेम यश गोविन्द गाय ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमिर जग सिरजनहारा ॥१॥
जब लग विषम व्याधि नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई ।
जब लग शब्द पलट नहिं जाई, तब लग सेवा कर राम राई ॥२॥
अवसर राम कहसि नहिं लोई, जन्म गया तब कहै न कोई ।
जब लग जीवे तब लग सोई, पीछे फिर पछतावा होई ॥३॥
सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे ।
गुरु मुख भरम-तिमर सब भागे, बहुर न उलटे मारग लागे ॥४॥
ऐसा अवसर बहुर न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा ।
दादू हारि जीत जग आया, बहुत भांति कह-कह समझाया ॥५॥
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उक्त प्रकार दीक्षा समारोह समाप्त हो जाने पर तथा प्रसाद बँट जाने पर और आगत राजा लोगों तथा श्रीमानों के चले जाने पर राजा बीरबल दादूजी महाराज को अपने जनाने महल में ले गया । वहां की मातायें दादूजी का दर्शन करके अत्यन्त प्रसन्न हुई, वहां का महल, निवास स्थान सब दादूजी को दिखाये किन्तु दादूजी उन सबको देखकर उदास ही हुये ।
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फिर राजा बीरबल ने दर्पण महल दिखाकर दादूजी को पूछा - भगवन् ! यह महल कैसा है । तब दादूजी ने कहा - ये सब मिथ्या हैं । तब राजा बीरबल बोला - हे भगवन् ! जब मिथ्या ही है, तो इन सबको त्याग करके मैं भी आपके साथ चलता हूँ । तब दादूजी ने कहा - हमारे साथ चलने की तो आवश्यकता नहीं है, इन सब को मिथ्या समझकर इनसे परोपकार करो, अपना कुछ भी मत मानो ।
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जैसे मुनीम सेठ की वस्तुओं को अपनी नहीं मानकर उनसे काम लेता है, वैसे ही सब कुछ प्रभु का ही है ऐसा समझकर परोपकार द्वारा प्रभु की संपत्ति प्रभु के ही समर्पण करते रहो । इसका नाम त्यागना ही है । संपत्ति को अपनी मानकर आसक्त होने से ही संपत्ति हानिकारक सिद्ध होती है ।
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जैसे जल में कमल रहता है किन्तु जल के ऊपर ही रहता है, वैसे शरीर संसार में रहे किन्तु मनोवृत्ति को प्रभुपरायण रखने का यत्न रखना चाहिये । तभी कल्याण होता है, केवल गृह त्यागकर भ्रमण करने से ही कल्याण नहीं होता । फिर अन्तःपुर की माताओं को प्रसाद प्रदान करके दादूजी राजा बीरबल के साथ बाहर आये ।
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उस समय राजा बीरबल के रोम हर्ष से खड़े हो रहे थे तथा वाणी भी गद्गद् और प्रेमावेश से नेत्रों में भी जल भर रहा था । वे अपने को सम्यक् संभाल नहीं रहे थे, वे यह सोचते हुये कि मैं गुरुदेव की क्या सेवा करूँ कुछ पीछे रह गये थे । होश आने से सेवक को कहा - शीघ्र जाकर स्वामीजी को द्वार पर रोको, मैं पुनः एक बार दर्शन तो करलूँ ।
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सेवक ने आकर दादूजी महाराज को प्रार्थना की - स्वामिन् ! राजा बीरबल आ रहे हैं, आप थोड़े रुकें । इतने में तो राजा बीरबल आ गये । उक्त प्रकार एक दिन राजा बीरबल के अतिथि रहे । आगे द्वार पर आमेर नरेश भगवतदास के सेवक दादूजी महाराज को बुलाने आये हुये थे । उन्होंने राजा बीरबल को आमेर नरेश का संदेश दिया और कहा - उन्होंने कहा है कि स्वामीजी को मेरे यहां भिजवा दें ।
(क्रमशः)
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