गुरुवार, 7 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२८)


🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*पंथी मांहि पंथ चलि आयौ*
*सो वह पंथ लख्यौ नहिं जाइ ।* 
*वाही पंथ चल्यौ उठि पंथी*
*निर्भय देश पहुंच्यौ आइ ।* 
*तहां दुकाल परै नहिं कबहूं*
*सदा सुभिक्ष रह्यौ ठहराइ ।*
*सुन्दर दुखी न कोऊ दीसै*
*अक्षय मैं रहै समाइ ॥२८॥*
*= ह० लि० १, २ टीका =* 
पंथी संत मुमुक्षु तामं पंथ नाम परमात्मा की प्राप्ति की कर्त्ता भक्ति ज्ञान सो आपको सुत वा साधना करि वा मुमुक्षु संत कौ प्राप्त हुवौ । सो जो वा ज्ञान है सो अति सूक्ष्म स्वरूप है ताको लखणों समझणों अति कठिन है - सो गुरु संत शास्त्र उपदेश करि वा ज्ञान मार्ग को दृढ निश्चै धारिकै वो मुमुक्षु संतरूपी पंथी वाही ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग में चल्या, या प्रकार परमात्मा को प्राप्त हुवा । ता ब्रह्मदेश में दुकाल परे नहीं नाम किसी बात की ऊँणता रहै नहीं । तहां ब्रह्मदेश में सुभिक्ष नाम सदा ही सर्व प्रकार की पूर्णता रहे । “रसवर्ज रसोSप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्त्त्ते ॥” इति(भ. गी.अ.२, श्लोक ५९) । वा ब्रह्मदेश कों जो प्राप्त हुवा तिनां के किसी के भी किसी प्रकार को दुःख नहीं रहै है, वे सदा ही अक्षय नाम अविनाशी सुख में लीन रहै हैं ॥२८॥ 
.
*= पीताम्बरी टीका =* 
मोक्षरूप प्रदेश के ज्ञानरूप मार्ग में गमन करने वाला जो मुमुक्षुजीव है ताकू इहां पंथी कहै हैं । ता मांहिं ज्ञानरूप पंथ(मार्ग) चलि आयो । अर्थात् गुरु शास्त्रादि अवांतर साधन द्वारा अंतःकरण की चरमावृत्ति करि प्रगट भयो । सो वह पंथ लख्यो नहिं जाइ । इहाँ यह रहस्य है - जैसे बिजली की गति, मन की गति औ पक्षी की गति विलक्षण पुरुष करि जानी जावै है । यातें लक्ष्य हैं । जल में छोटी मच्छरी होवै है ताकौं यद्यपि और कोई जानि सकै नहीं तातैं अलक्ष्य कहिये है । तथापि मच्छरी रूपधारी योगी करि जानी जावै है यातैं लक्ष्य है । योगी की गति यद्यपि औरन से जानी जावै नहीं तथापि सो अन्य योगी करि जानी जावै है । तातैं ज्ञानी की गति(पंथ) रूप ज्ञान लखने में आवै नहीं । 
उक्त मुमुक्षु जीवरूप जो पंथी है सो उठि कहिये अज्ञानरूप पूर्वस्थान से उठिके वाही ज्ञानरूप पंथ में चल्यो । अर्थात् ज्ञानी होय विचरने लग्यो । ऐसे बिचरते विचरते जब शेष कर्मन का क्षय हो गया तब विदेहमोक्षरूप जो निर्भय देश है तहां आइ पहूंच्यो, अर्थात् ब्रह्म तें अभिन्न भयो । तहां कबहूं जन्म - मरणादि दुःखरूप दुकाल परै नहिं । काहेतें कि सदा परमानन्दरूप सुभिक्ष(सुकाल) ठहराइ रह्यो है । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि तिस विदेह - मुक्तिरूप स्थिति में कोऊ दुखी दिसै । काहेतें कि जो जो पुरुष ज्ञानरूप मार्ग करि विदेह मुक्त भये हैं वे सर्व उपाधि रहित ब्रह्मरूप होय के स्थित हैं । सो ब्रह्मस्वरूप अक्षयसुखरूप होने तें तहाँ दुःख का लेश भी नहीं है, ता में समाइ रहै हैं ॥२८॥
.
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“पंथी मांहे पंथ चलि, आयौ आकसमात ।
सुंदर वाही पंथ माहि, उठि चाल्यौ परभात” ॥३९॥
“चलत चलत पहुंच्यो तहां, जहां आपनौं भौंन ।
सुन्दर निश्चल व्है रह्यौ, फिरि आवै कहि कौंन” ॥४०॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें