शनिवार, 9 जनवरी 2016

= विन्दु (१)५९ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५९ =*
*= दादूजी का सीकरी से प्रस्थान =*
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उक्त सूचना के अनुसार दादूजी महाराज अपने शिष्यों के सहित नगर से बाहर आये तो आगे सभी समाजों के संतों का समूह प्रथम मिला । वह स्थान भी अच्छा लम्बा चौड़ा था । वहां बैठने की व्यवस्था प्रथम बादशाह ने करवा दी थी, वहां बैठकर संतों से संभाषण करने लगे-सभी षट्दर्शन के जोगी(नाथ), जंगम, यति, बौद्ध, संन्यासी, शेख संत अपनी-अपनी भावनानुसार वचन कहने लगे ।
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सबका भाव यही था कि आपका सीकरी आना बहुत अच्छा हुआ । आपने गोवध बंद की आज्ञा निकलवा कर तो बहुत ही अच्छा कार्य किया है । उसकी अच्छाई के आभार प्रदर्शित करने के लिये तो हमारे पास शब्द भी नहीं हैं । हम इतना ही कह सकते हैं कि आपने यह बहुत ही अच्छा कार्य किया है ।
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उसके विपरीत योजना बनाने वालों को भी आपने तेजोमय तखत बादशाह के मुख्य दरबार में दिखाकर शांत कर दिया । यह भी महान् सौभाग्य की बात है कि वे लोग सफलता प्राप्त नहीं कर सके । आपके शिष्य इन जग्गाजी ने तो वामन भगवान् के समान अपना शरीर बढ़ाकर तथा नगर के कोट की दीवाल को लांघ कर संपूर्ण नगर को आश्चर्य में डाल दिया था ।
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आपने भी पक्षपात रहित यथार्थ उपदेश देकर भारत के सम्राट अकबर ने ईश्वर भक्ति का संस्कार डाल दिया है । यह भी बहुत अच्छा किया है । हम षट्दर्शन के सभी संत आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं; आपने षट्दर्शन की लाज को बहुत अच्छे ढंग से बचाया है । अब हम लोग अधिक तो आपसे विचार करने की स्थिति में नहीं हैं, कारण राज कर्मचारी बादशाह के आने की सूचना देकर स्थान को खाली करा रहे हैं ।
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फिर परस्पर प्रणाम करने पर सब संत वहां से हट गये किंतु इधर-उधर जनता में दादूजी की विशेषता की चर्चा करते हुये वहां ही विचर रहे थे । इतने में ही अकबर बादशाह, बीरबल, आमेर नरेश भगवतदास और भी अनेक राजा तथा नगर के श्रीमान् लोग दादूजी के दर्शन करने आ पहुँचे ।
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अकबर ने दादूजी के पास आकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सामने बैठ गये । उसी प्रकार बीरबल आदि सब प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये अकबर के पीछे बैठ गये । फिर अकबर ने कहा - स्वामिन् ! अब तो आप पधार ही रहे हैं, संत तो स्वतंत्र होते हैं, संतों के आगे तो हमारा कुछ वश नहीं चलता है किंतु आप हम पर दया तो अवश्य रखना ।
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तब दादूजी ने कहा - जब तक आप सब जीवों पर दया रखेंगे तब तक परमेश्वर भी आप पर दया अवश्य रखेंगे । यह उपदेश आप सदा याद रखना -
"दया धर्म का रुंखड़ा, सत ते बधता जाय ।
संतोष से फूले फले, दादू अमर फल खाय ॥"
दया रूप धर्म का वृक्ष है, वह सत्य व्यवहार से वृद्धि को प्राप्त होता है और संतोष से फूलता फलता है । जो संतोष रखते हैं, वे ही दया वृक्ष का अमर यश रूप फल खाते हैं ....
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अर्थात् उनका यश संसार में सदा बना रहता है और उसके विपरीत दयाहीनों का अपयश बना रहता है । प्रत्येक प्राणी यश चाहता है अपयश कोई भी नहीं चाहता । अतः यश चाहने वाले को सब निर्दोष जीवों पर दया अवश्य रखनी चाहिये । दादूजी का उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह ने कहा - स्वामिन् ! आपके अमूल्य उपदेश पर ध्यान अवश्य रखा जायगा । उस समय अकबर के साथ गायक तानसेन और बैजूबावरा भी था । अकबर ने तानसेन से कहा ।
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"वेदन में सामवेद स्मृति में गीता सार,
पुराणों में भागवत तत्त्व के सामान ये ।
देवन में इन्द्रराज तारन में चन्द्र विराज,
वृक्षन में कल्प वृक्ष पशु सिंह जानिये ॥
तीरथ में गंगा जैसे सागर में रत्नाकर,
पक्षिन में गरुड़ गुणावाद ठानिये ।
कहै शाह अकबर सुनो वीर तानसेन,
संनत में ऐसे गुरु दादूजी प्रमानिये ॥
(संत गुण सागर से)
(क्रमशः)

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