卐 सत्यराम सा 卐
दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति मांहि ।
फिरि फिरि देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नांहि ॥ ३३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त संतों की संगति में परमेश्वर का प्रेमाभक्ति रूपी अमृत, साधक पुरुषों ने प्राप्त किया है । लोक - लोकान्तरों में घूम - घूम कर विचार कर देखा, तो मायिक सुख तो बहुत हैं, परन्तु अनन्य भक्तिरूपी यह सुख कहीं भी नहीं प्राप्त होता ॥ ३३ ॥
अमी पाताल न पाइये, ना सतसंग अकास ।
प्रत्यक्ष अमृत पाइये, जैमल साधू पास ॥
दादू जिस रस को मुनिवर मरैं, सुर नर करैं कलाप ।
सो रस सहजैं पाइये, साधु संगति आप ॥ ३४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस ब्रह्मानन्द रूप रस के लिये देव, मनुष्य, मुनीश्वर, सब प्रयत्न करते हैं, वह ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति में बिना प्रयास ही प्राप्त होता है । क्योंकि उत्तम जिज्ञासुओं के कल्याण के लिये परमेश्वर ही संतों के रूप में प्रकट होकर ज्ञान उपदेश करते हैं । जैसे ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल, कबीर साहिब आदि ॥ ३४ ॥
बाजिंद साधु संग को, फल कहा वर्णत कोइ ।
तांबा तैं कंचन भयो, पारस परसै सोइ ॥
(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)
(चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल)
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